Tuesday, September 21, 2010

मेरी, तेरी उसकी जेब

क्या आपको नहीं लगता है कि गले मिलकर जेब काट लेने की परंपरा कितनी पुरानी है, इस पर अब विस्तृत शोध की जरूरत है? मेरे एक दोस्त को ऐसा लगता है। उनका मानना है कि अब वक्त आ गया है और सारे देश को ये पता चले कि झालावाड़ जिले के भवानीमंडी में कुछ लोगों ने नेताओं की पोशाक पहनकर, नेताओं से गले मिलते हुए, नेताओं की जेब काट लेने का जो स्टाइल चलाया , उसका आईडिया कहां से आया था। यूं तो अपने देश में गले मिलने की परंपरा काफी पुरानी है। भऱत से गले मिले थे राम, लेकिन क्या तब जेब कटने जैसी ऐतिहासिक घटना हुई थी?महाभारत में भी राजाओं के गले मिलने के कई प्रसंग हैं, लेकिन जेब कटने की बात अगर सामने आती तो बी आर चोपड़ा का महाभारत कुछ और होता। मामा शकुनी महामंत्री विदुर से गले मिलते और चुपके से उनका बटुआ खींच लेते या फिर राजा विराट का राजा द्रुपद से गले मिलने का सीन होता और विराट नरेश कंगाल होकर घर पहुंचते। शायद ये रामायण काल या महाभारत काल में नहीं हो पाया था, लेकिन क्रांति करने वाले बीते कल की ओर कहां देखते हैं? झालावाड़ जिले के भवानीमंडी के जेबकतरों ने वो कर दिखाया,जो मुंबईया फिल्मों की फैक्ट्री में काम करने वाले बड़े-बड़े पटकथा लेखकों को भी ख्याल नहीं आया।
वो जेबकतरे दल बदलना जानते थे। रैली किसी भी पार्टी की हो, उसी पार्टी का झंडा लेकर दल-बल के साथ नेताओं की वेश-भूषा में पहुंचते थे और बड़े-बड़े नेताओं से गले मिलते हुए उनकी जेब काट लेते थे। उन जेबकतरों ने पहले-पहल तो झालावाड़ में ही प्रैक्टिस की, फिर कुछ दिनों के बाद वे अखिल भारतीय हो गए।
क़ालेज में पढ़ाने वाले मेरे वे दोस्त चाहते हैं कि जेबकतरों के इस नए स्टाइल पर विश्वविद्यालयों में शोध हो। उनका मानना है कि देश में जेबों की संख्या काफी है और कुछ लोग अपने-अपने जेब में देश लेकर घूमते हैं, इसलिए इस बात पर विश्वविद्यालयों के होनहार रिसर्च स्कॉलरों को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इस शोध के बारिक पहलुओं पर अपने महत्वपूर्ण उदगार व्यक्त किए-"इस शोध के बाद ये बात साफ हो जाएगी कि नेताओं की जेब और आम आदमी की जेब में क्या-क्या समानताएं और क्या-क्या असमानताएं हैं। फिर इस शोध के बाद पता चलेगा कि जानवरों की रूचि जेब में क्यों नहीं हैं? जेब कैसे बनती है? जेब कैसे बढ़ती है। एक जेब में कैसे समा जाता है पूरा का पूरा देश? अंदर की आस्तीन में छिपी जेबों का सौंदयशास्त्र क्या है? जेबकतरे कैसी जेबें पसंद करते हैं? जेबों में सिक्के रखने चाहिए या रुपए? आखिर कोई क्यों काटता है किसी की जेब? जेब कट जाए तो कैसे मातम मनाएं? आदि। निमंत्रण देकर जेब काटने की शैली को वे प्राथमिकता देना चाहते थे क्योंकि झालावाड़ के वे जेबकतरे भी जिनकी जेब कटती थी, उनको वे फूलों का गुलदस्ता भेंट करना नहीं भूलते थे।
अपनी बातों में बढ़ती रूची देखकर वे इस शोध का प्रैक्टिकल पहलू भी समझाने लगे-" इससे जेब काटने और जेब बचाने के नए-नए पैंतरे सामने आएंगे। जेबों की दुनिया का विस्तार होगा। जेबों से लोगों को रोजगार मिलेगा। जेबों की कई नई किस्में भी सामने आएंगी और उसका मतलब समझ में आएगा, जैसे मौसमी जेब, मरियल जेब, मतलबी जेब,मनमानी जेब, खास जेब, आम जेब,अमर जेब,पारदर्शी जेब, पारंपरिक जेब,जालंधरी जेब,जुगल जेब, जुगत की जेब,जय जेब,अजेय जेब आदि।"
ऐसा लगा मानो वे जेब काटने के मामले में बकायदा आंदोलन चलाने के मूड में आ गए हों-" देश में जेब काफी है और जेब काटने की योग्यता वाले कई लोग जो आज अफसर, नेता या बुद्दिजीवी बने फिरते हैं, यदि किस्मत साथ देती तो वे जेब काटते और ऐसी काटते कि किसी को कानों-कान खबर नहीं लगती। ऐसे लोगों को अगर सही तरीके से हेंडल किया जाए और मौका दिया जाए तो देश का अर्थशास्त्र मजबूत हो सकता है। अमेरिका से मिले, उसकी जेब खाली। ब्रिटेन से मिले,उसकी जेब का पत्ता साफ।" बात जम रही थी और मेरे अलावा भी कई श्रोता उसकी तरफ टकटकी लगाए खड़े थे।
वे बोले कि मैं आज ही झालवाड़ की तरफ निकल रहा हूं। हवालात जाकर उन जेबकतरों से मिलूंगा और पूछूंगा कि नेताओं के आने का प्रोग्राम वो चैनल से पता करते थे या अखवार से। अब तक किन बड़े-बड़े नेताओं की जेब उन्होंने और उनकी पूरी टीम ने काटी, इस पर भी उनको जानकारी चाहिए थी। उनके मूड को देखकर लगा कि अगर उन्हें मौका दिया जाए तो वे जेब काटने को जिंदगी जीने की कला साबित कर देंगे और कॉलेजों में बकायदा इसकी पढ़ाई शुरु हो जाएगी। हम लोग कुछ बोलना चाहते थे ,लेकिन वे रुके नहीं। गति को देखकर लगा कि अब वे झालावाड़ पहुंचकर मेरी, तेरी उसकी जेब का हिसाब लेकर ही दम लेंगे।
-देव प्रकाश चौधरी
अमर उजाला में 22.09.10 को तमाशा कॉलम में प्रकाशित

3 comments:

  1. देव प्रकाश जी,
    नमस्ते,

    मैं अरविंद शेष हूं। जनसत्ता में हूं। इंटरनेट पर हिंदी में अच्छी सामग्रियों पर आधारित जनसत्ता के संपादकीय पन्ने पर एक साभार स्तंभ "समांतर" प्रकाशित होता है। मकसद है प्रिंट के पाठकों की पहुंच ब्लॉग पर आने वाली अच्छी सामग्रियों तक भी हो।

    समांतर के लिए आपके ब्लॉग फिर कभी से एक लेख कहां गई हंसी.... का अंश निकाला है। उसे समांतर में प्रकाशित करने की इच्छा है। उम्मीद है आपको आपत्ति नहीं होगी। प्रकाशन के बाद आपको इसकी पीडीएफ फाइल मे कर दूंगा। आप कृपया मेरे ईमेल पते arvindshesh@gmail.com पर अपने ईमेल से कुछ भेज दें।

    अगर आपकी निगाह ब्लॉगों पर रहती हो तो आपको जो थोड़ी बेहतर सामग्री लगे उनका लिंक मुझे भेज सकते हैं।

    शुक्रिया।

    अरविंद शेष
    जनसत्ता
    ९८१८६०४०१६

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  2. अच्छा व्यंग्य है. और दूसरो की जेब काटने वाले नेताओं की जेब काटने वाले दल को मेरा सलाम.

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