Monday, July 4, 2011

मिजाज सवा चालीस का पहाड़ा

चलते हुए मन 'में-में' करता है, 'हक-हक' करता है, 'अस-बस' करता है और कभी-कभी 'कस -मस' भी करता है. क्यों नहीं करेगा भई, सड़क भले ही अब पक्का और चौड़ा हो गया हो, लेकिन रास्ता तो वही है न, जिसपर कभी लाल पान की बेग़म अपनी बैलगाड़ी में बैठकर इतराई थी. इन्हीं रास्तों पर तो हीरामन की बैलगाड़ी ने लीक छोड़कर हीराबाई को सुनाया था, महुआ घटवारिन का गीत. ऐसी सड़क पर चलते हुए मन में ही नहीं पीठ में भी गुदगुदी होती है. ठीक गाड़ीवान हीरामन की तरह. इस्स... जुलुम बात, पीठ में भी कहीं गुदगुदी होती है? होती है, कभी सिमराहा आ कर तो देखिए...कभी औराही हिंगना पहुंच कर देखिए कि कैसे फनीश्वरनाथ रेणु ने अपने गप्पों को शीर्षक लगाकर हिंदी साहित्य में 'टटकेपन' का अहसास कराया था....टटकेपन का ‘टीका’ बाद में, पहले औराही हिंगना की बात.

फ़ारबिसगंज से निकलकर औराही हिंगना गांव की ओर बढ़ते हुए मन के साथ साथ, सचमुच पूरे शरीर में झुरझुरी सी होने लगी थी-किसके घर से कागा अभागा नकबेसर लेकर भागा होगा? किस घर में झालदार बातें सुनने के बाद सिरचन के मर्मस्थल को 'ठेस' लगी होगी? किस गांव के किस टोले में 'पंचलाइट' जलाने के एवज में पंचों ने गोधन को सिनेमा का गाना गाने की छूट दी होगी? दसदुआरी पंचकौड़ी से यहीं कहीं किसी टोले में तो शोभा मिसिर के बेटे ने साफ साफ कहा था-तुम जी रहे हो कि थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया? जैसे जैसे औराही-हिंगना करीब आ रहा था,रेणु के एक पात्र एक एक कर सामने आते जा रहे थे.
चिड़िया-चूरमून की आवाजें,मोटरगाड़ियों का शोर, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में पीछे रह जाने वाले साईकिल सवारों की गालियां, स्कूल के कुछ जुवाये हुए लड़कों की मटरगश्ती, सड़क के किनारे बैठकर छोटे से लाउडस्पीकर के सहारे “खाऊं की खुजाऊं..." जुमले के साथ खुजली की दवा बेचने वाले कविराज और छोटी-छोटी लेकिन बेहद खूबसूरत चिड़ियों वाले एक पिंजरे से भागते ट्रक ड्राइवरों को लुभाता हुआ 13-14 साल का एक लड़का... बाहर का नजारा दिलचस्प था.

ड्राइवर ने बताया,"समझिए कि बस आ ही गए." तभी पूर्णिया-फारबिसगंज हाईवे से सटे सीमेंट के एक सादे और सपाट-से द्वार पर जाकर नजर ठहर सी गई-रेणु द्वार. द्वार के बगल में ड्राइवर ने गाड़ी खड़ी कर दी और खुद नीचे उतरते हुए बताता गया कि द्वार से जो सड़क जा रही है, वही औराही हिंगना जाएगी... खुद गाड़ी से उतरा तो पता चला कि उस जगह का नाम है सिमराहा और अब कुछ ही दूर है औराही हिंगना.

रेणु द्वार हाल की उपज है. पहले सिर्फ सड़क जाती थी,द्वार नहीं था. उससे पहले वह सड़क भी कच्ची रही होगी. महान कथाकार रेणु के सम्मान में यहां इस द्वार का निर्माण हुआ है. बाहर से आनेवालों को सुविधा हो गई है, लेकिन इससे पहले भी रेणु की कथा दुनिया को जानने और समझने के लिए आने वाले लोगों को कभी कोई दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि रेणु सिर्फ अपने लोक को शब्द ही नहीं देते थे, अपने लोक को जीते भी थे, तभी तो लिखते हुए उन्हें अपने लंगोटिया यारों की बेतरह याद आती थी- “इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है. वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक हैं, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं. वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं. कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?”

मैं भी रेणु द्वार पर खड़े होकर 'कुछ वहां वाली' बात सुनने का मोह संवार नहीं सका. आगे बढ़े तो मिले घोतन दास. घोतन दास सिर्फ पान की दुकान ही नहीं चलाते, 'मलमल के कुर्ते पर छींट लाले-लाल, पान खाए सैंया हमार हो', गीत भी गुनगुनाते हैं. घोतन दास ने रेणु की कहानी पर बनी फिल्म 'तीसरी कसम' नहीं देखी है. किस्सा सुना है और फारबिसगंज में आए एक ठेठर (थियेटर) की बदौलत सालों से यह गाना उनके सर पर चढ़कर बोल रहा है-“गजबे गाना है कि...सुनकर मिजाज सवा चालीस हो जाता है.”
घोतन की दुकान पर अभी खड़े नहीं हुए थे कि आस-पास यह बात चल निकली, रेणु के गांव को देखने आए हैं, कुछ रिसर्च-विसर्च करेंगे. लोग जमा होने लगे- तूफानमेल रिक्शावाला नरेस, साईकिल पर खाद लेकर घर लौटने वाला छेदी, हीरो होंडा स्पेलेंडर से अररिया जाने के लिए निकला प्रेमशंकर और शायद कहीं नहीं जाने के लिए भी घर से तैयार होकर,झकास कुर्ता-धोती पहनकर, वहां तक आनेवाले सूर्यानन्द...देखते-देखते मजमा सा लग गया.
किसी ने रेणु को देखा था तो किसी ने रेणु को पढ़ा था और किसी ने उनके बारे में सिर्फ सुना था. लेकिन हर किसी के पास इलाके के महान साहित्यकार रेणु के बारे में एक से बढ़कर एक जानकारियां थी....ऐसा लगा मानो हर किसी की जिंदगी से, हर किसी के घऱ से जुड़े हों रेणु. सामाजिक हैसियत, जातिगत व्यवस्था और अमीरी-गरीबी के तमाम विभाजनों से अलग नहीं थी फनीश्वरनाथ रेणु की दुनिया, फिर भी सबको अपने क्यों लगते हैं रेणु.
सवाल का जवाब रेणु खुद अपने आत्मकथ्य में दे चुके हैं-" मैंने रात में भैंस चराया है, रात में पानी में भींगकर मछली का शिकार किया है, जाड़े की भोर में तीन बजे ही उठकर तीसी के फूले हुए खेतों में बटेर फंसाया है, कलाली में बैठकर झूम-झूम कर गीत-गा-गाकर दारू पिया है, बारातों में घोड़ा दौड़ाया है, पगड़ी बांधकर-गांव वालों के साथ मिलकर लाठी से बाघ मारा है. बोलो हो पंचो, अर्थात औराही-हिंगना के निवासियो-मैं झूठ कहता हूं."

"एकदम सच-सच लिखते थे रेणु जी,बहरा चेथरू को तो अमरे कर दिया," मैं रेणु के लिखे में पल भर के लिए खो क्या गया, वहां लगे मजमे में हर कोई वक्ता हो चुका था. बहरा चेथरू की बात प्रेमशंकर ने निकाली थी, सूर्यानन्द ने उसे डपटकर चुप करा दिया-" तू क्या जानता है बे ,चेथरू के बारे में...जब जनम भी नहीं हुआ था तब वो सिधार गए. मैंने देखा है चेथरू को. अरे, औराही के ही तो थे. रेणु जब सिमरबनी स्कूल में पढ़ते थे तो बहरू उन्हें पहुंचा आया करते थे." रेणु के इस पात्र का नाम उनके कालजयी उपन्यास मैला आंचल की याद दिलाती है. उपन्यास की शुरुआत ही चेथरू से होती है-" गांव में यह बात तुरंत बिजली की तरह फैल गई -मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्फ कर लिया है." बात बढ़ती गई और रेणु के कई और पात्र सामने आते गए. मैला आंचल के ही एक और पात्र रामलाल बाबू. रामलाल बाबू घोतन का 'सबजेक्ट' निकला. अबकी बारी उसकी थी-" फारबिसगंज के पास है बथनाहा, और वहां से दो किलोमीटर दूर गांव है- मड़हर. रामलाल बाबू यानी रामलाल मंडल वहीं के थे. जेल में गांधीजी को रामलाल बाबू ने रामायण सुनाई थी."
घोतन एक बार अपने चचेरे भाई की बारात में मड़हर गया था और वहीं ये सारी बातें सुनी थीं और अब तक दर्जनों लोगों को सुना चुका था. रामलाल बाबू का जिक्र मैला आंचल कुछ इस तरह आता है-“बोलता है कि गांधीजी ने रामलाल बाबू को नौआखली बुलाया है....रामबाबू जब गा-गा कर रमैन पढ़ने लगते हैं, तब सुनने वालों की आंखों में खुद लोर ढरने लगता है."
बातचीत में गर्मी आई तो अगल-बगल के कुछ और लोग भी आ गए. पान खाकर, जर्दा घुलाकर पहली कुल्ली फेंकने के बाद सूर्यानंद ने हीरामन की बात निकाल दी. हीरामन यानी तीसरी कसम का नायक-" जानते हैं हीरामन कौन था...रेणु का हलवाहा कह लीजिए, चरवाहा कह लीजिए या फिर गाड़ीवान कह लीजिए, असली नाम था कुसुमलाल. वे जब पटना से सिमराहा आते थे तो कुसुमलाल उन्हें टप्पर गाड़ी पर स्टेशन लेने आता था...अलबत्त मनमौजी आदमी था भाई...रेणुजी गुजर गए तो उसके बाद जीवन पर्यंत न तो बैलगाड़ी जोता न ही अपनी गाड़ी में टप्पर बांधा." सूर्यानंद का गला भर आया था, वे पान की पीक थूकने बगल क्या हटे प्रेम शंकर को मौका मिल गया. प्रेम शंकर ने फेंकन चौधरी का जिक्र छेड़ दिया-"मेरे मौसा के दोस्त थे. जोगबनी में रहते थे...रेणु जी जब भी जोगबनी जाते उनसे जरूर मिलते थे." फेकन चौधरी हाल तक जीवित थे...अपने इस दोस्त को रेणु ने नेपाली क्रांति कथा में जगह दी है.
रेणु पर गप्प चला हो तो उसमें गिरह लगाना बेहद मुश्किल है. तुफानमेल रिक्सावाला बड़ी देर से बोलने का मौका ढूढ रहा था, कोई बोलने ही न दे,लेकिन वो भी बोलेगा. उसने अपने पिताजी से बहुत कुछ सुना है रेणु जी के बारे में . "बाबू बताते थे...जब वो पटना से गांव आते थे...तो रतजगा हो जाता था लोगों का...रात-रात भर गप्प...दुनिया भर के गप्पों का पिटारा था उनके पास....ग्यानी आदमी थे.." नरेश और कुछ बोलना चाहता था लेकिन साइकिल पर खाद लेकर लगभग आधे घंटे से खड़ा छेदी भी तो बोलने के लिए कुलबुला रहा था. छेदी के बड़े भाई राधाकांत रेणु के साथ उठते बैठते थे....तो छेदी ने एक पते की बात बड़े ही रहस्यमयी अंदाज में बताई, लगभग फुसफुसाते हुए-"लाल पानी भी उनको सूट करता था...कलकत्ता-पटना से आते थे तो कभी-कभी ढेर सारा बीयर लेकर आते थे...." बीअर का जिक्र आते ही छेदी की आवाज साबिक सम पर आ गई-"बड़का भाय बताते थे कि बीयर को ठंडा करने के लिए कमाले का तरकीब निकाले थे रेणु जी...कूड़ में बोतल देकर उसे कुईयां में डूबा देते थे. कई पहर बोतल पानी के अंदर पड़ा रहता ... कुईंया के पानी से जब बीयर कनकन ठंडा हो जाता था..तो फिर निकाल के उसको पीते थे.... "
रेणु के दोस्तों की बात, रेणु के किरदारों की बात और रेणु के बीयर की बातों ने औराही हिंगना को दोखने का मोह और बढ़ा दिया....उनलोगों से विदा लेकर मैं तो अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गया... वहां के जमघट में अब भी रेणु पर बातें जारीं थीं. अब मैं औराही हिंगना की ओर बढ़ रहा था..बांस-फूस की बनी बस्तियां मिट रही हैं, पक्के मकानों की रंगत निखर रही है.

लुंगी और हाफ कुर्ते में एक बुजुर्ग आते दिखे तो मैंने गाड़ी रोकने को कहा. मैं गाड़ी से उतरा जरूर, लेकिन मुझे कुछ पूछने की जरूरत नहीं महसूस हुई, खुद उन्होंने ही पूछा-" दिल्ली-विल्ली से आए हैं क्या? रिसर्च-विसर्च का काम चल रहा होगा...रेणु बाबू के घर जाना है आपको ?” मैं लगभग आवाक की मुद्रा में खड़ा था, वे फिर बोल उठे-"बड़े ही फेमस राइटर थे रेणु बाबू..खुद तो अमर हो ही गए...गांव टोले खेत खलिहान, दोस्त दुश्मन सबको अमर कर दिए...."
उन्होंने अपना नाम बताया राधे कृष्ण मल्लिक, पास के ही एक गांव में टीचर हैं. उनके बताए रास्ते पर में आगे बढ़ गया...और कुछ ही पलों में में देश और दुनिया के महान कथाकार फनीश्वर नाथ रेणु के घर के आगे खड़ा था. पीठ में फिर से गुदगुदी होने लगी थी-पहले रेणु का घर के बारे में कुछ इस तरह का पढ़ने को मिलता था-" फूस का मकान, आंगन में कबूतर का दड़वा, मकान के पश्चिम में बांसबाड़ी, उत्तर की ओर झुग्गी झोपड़ियां और कुछ आगे जाकर आम के बगीचे. दरवाजे पर बहुत पुराना कुआं,जिसकी दीवारों पर चित्रकारी....." अब कुछ बदला-बदला लगता है.
घर के आगे रेणु जी के छोटे पुत्र अपराजित राय से मुलाकात होती है. वे बताते हैं कि रेणु जी के चौकड़े (दरवाजा,जहां उनकी बैठक लगती थी) को फिर से बनवाया गया है.लेकिन ठीक उसी तरह जैसा कि रेणु जी के समय था. चौकड़ा बनाने वाले कारीगर मोहम्मद महमुद्दीन का दावा है कि रत्ती भर का भी हेर-फेर नहीं-" लेकिन इसकी लंबाई-चौड़ाई और ऊंचाई में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया गया है. एक इंच का भी फ़र्क नहीं है. फ़र्क सिर्फ़ यह है कि इसे नयी डिजाइन और नया कलेवर दिया गया है."

रेणु जब थे तो गांव में बिजली नहीं थी. अब बिजली आ गई है, इसे अपराजित एक बड़ा बदलाव मानते हैं.रेणु जी के सबसे बड़े पुत्र पद्म पराग राय वेणु के बारे में पूछता हूं, तो पता चलता है, वे किसी काम से कटिहार गए हैं. रेणु जी के एक और पुत्र दक्षिणेश्वर भी बाहर थे. अपराजित से अभी ठीक ठंग से बातचीत हो भी नहीं पाई थी कि लुंगी और बनियान में एक विदेशी शख्स को देखकर चौंक सा गया. खांटी-देहाती बनकर घूमनेवाले उस विदेशी शख्स के बारे में जानने की लालसा बढ़ गई. पता चला उनका नाम इयान बुलफोर्ड है, वे टेक्सास, अमरीका से आए हैं और इन दिनों आंचलिक भाषा और ठेठ बिहारी ग्रामीण जीवनशैली को समझने के लिए मगजमारी कर रहे हैं. इयान का ज्यादातर वक्त रेणु के परिजनों और परिचितों के साथ बीतता है-"रेणु की लेखनी अद्वितीय है. उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए ग्राम्य जीवन पर प्रकाश डाला. साथ ही आचलिक गीतों को प्रमुखता से स्थापित किया." इयान जब औराही हिंगना आए थे तो जान -पहचान किसी से नहीं थी. लेकिन उन्हें अब इस बात की खुशी है कि पहली बार में ही उनके कई दोस्त बन गए-"रेणु की लेखनी के बारे में अंग्रेजी में काफी कम लिखा गया है. मैं उनकी लेखनी पर शोध कर रहा हूं. मैंने लगभग 60 फीसदी शोध कार्य पूरा कर लिया है."
हाल ही में इयान को टेक्सास विश्वविद्यालय ने लेक्चरर बनाया है और अब वे अमरीकी विश्वविद्यालय में भारतीय ग्राम्य जीवन पर छात्रों को पढ़ाना चाहते हैं. इयान को रेणुजी की पत्नी लतिका रेणु से लंबी बात करनी है...पहले वे पटना में रहती थीं अब यहीं रहने लगी हैं. उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं. लेकिन बोली में ठसक आज भी वही है. पूछती हैं, “क्या पूछना है, पूछिए? क्या जानना चाहते हैं रेणु जी के विषय में.. अब तो वह रहे नहीं, इसलिए क्या बताऊं. चले गये, तो चले गये. पटना में थी, तो ये लोग यहां ले आये, यहीं रहकर खुश हूं.”

लतिका जी के कमरे में रेणु और उनके मित्र भोला नाथ मंडल की तसवीर लगी है, जिसकी पूजा लतिका जी सुबह-शाम करती हैं. कहती हैं, “दोनों गजब के मित्र रहे हैं. इसीलिए दोनों की तसवीर को साथ-साथ रखा है.” बात के बीच में ही जीवानंद मंडल टपक पड़ते हैं-" रेणु बाबू को दोस्तों की कमी थी भला...दिल्ली से लेकर नेपाल तक..कोलकाता से लेकर मुंबई तक दोस्त ही दोस्त थे." जीवानंद ये बात जोड़ना नहीं भूलते कि आज अगर रेणु बाबू होते तो औराही हिंगना का रंग ही कुछ और होता. जीवानंद रेणु जी से जुड़ा एक और किस्सा सुनाते हैं-"तीसरी कसम तूफान मचा रहा था...रेणु बाबू कुछ फिल्मी दुनिया के दोस्तों के साथ देर रात धर्मतल्ला, कोलकाता के इलाके में अंग्रेजी शराब खोज रहे थे. उन्हें शराब की एक दुकान दिखी, जिसका मालिक दुकान का शटर गिरा चुका था और ताला लगा रहा था. रेणु बाबू ने जाकर उससे मनुहार की कि भाई दो-तीन बोतल दे दो. दुकानदार सनकी था कहा- दुकान बंद हो चुकी है, शराब नहीं मिलेगी. रेणु बाबू के मुंह से बरबरस निकल पड़ा- इस्सस थोड़ी देर पहले आ जाते तो..... दुकानदार ने चौंक कर रेणु बाबू को देखा. लंबे-लंबे घुंघराले बाल. उसने पूछा अरे आप रेणु हैं. रेणु बाबू चौंके और कहा- हां. दुकानदार खुशी से पागल हो गया. उसने झटपट दुकान खोली और रेणु के हाथों में शराब की कुछ बोतले थमाते हुए पूछा- तीसरी कसम के हीरो हीरामन से कितना भालो इस्स कहलवाया है आपने. रेणु बाबू कुछ नहीं बोले , बस हंसते रहे."
रेणु को याद कर अब भी हंसते हैं लोग, रोते हैं लोग. ब्रह्मदेव मंडल कहते हैं.."माटी का लाल था, नाम रौशन करके चला गया.जो लिखा सच लिखा, नया लिखा." ब्रह्मदेव मंडल की बातों में रेणु के साहित्य के टटकेपन का टीका मिल गया होगा. टटका यानी नया. लेकिन उनके जाने के बाद गांव में एक किस्म का बासीपन आ गया, यह बात वे लोग कबूलते हैं, जिन्होंने रेणु की जिंदादिली देखी है, हक के लिए संघर्ष देखा है और लोगों के लिए उन्हें लड़ते देखा है. बात सच है, औराही हिंगना की हालत अब भी दूसरे गांवों से अलग नहीं....फिर भी यहां के लोगों को इस बात का फख्र है कि यही वो जगह है, जहां फनीश्वरनाथ रेणु पैदा हुआ थे,अमीर-गरीब, अनपढ़-गंवार या फिर पढ़े-लिखे,सब के सब रेणु को उतना ही अपना मानते हैं जितना कि उनके बेटे पद्म पराग राय, अपराजित या फिर दक्षिणेश्वर. एक लेखक लोगों के दिलों में कैसे सालों बाद जिंदा रहता है...यह पढ़ने या सुनने की बात नहीं महसूस करने की बात है..और इसके लिए आपको औराही-हिंगना आना होगा..और फिर आपकी पीठ में भी होगी गुदगुदी.

…और अब गप्प में गिरह
कई महीने बीत गए हैं, मुझे औराही हिंगना से आए. इसी बीच रेणु जी के बड़े बेटे फारबिसगंज से विधायक हो गए हैं. लतिका रेणु भी नहीं रहीं अब . हो सकता है औराही हिंगना में और भी बहुत कुछ बदला हो...लेकिन वहां से लौटने के बाद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि भले ही गांव बदल जाये,वक्त बदल जाये, हालात बदल जाएं,लेकिन एक चीज कभी नहीं बदलनेवाली है और वह है उस गांव और उस इलाके के परिवेश में फनीश्वर नाथ रेणु की मौजूदगी. लोग पान खाते रहेंगे,होठ लाल होता रहेगा,मलमल के कुर्ते पर छींटे भी गिरते रहेंगे...घोतन जैसे न जाने कितने लोगों का मिजाज सवा चालीस होता रहेगा.
देव प्रकाश चौधरी, औराही हिंगना से लौटकर

Wednesday, October 6, 2010

सिंधी ढाबे में हिंदी का अनशन

वे दुखी थे और इसकी सबसे बड़ी पहचान ये थी कि दप्तर में वे एक ऐसा कोना तलाश कर रहे थे, जहां अपने चेहरे को लटका कर बैठ सकें। दप्तर आए थे तो चेहरा अपने वाजिव आकार में था, लेकिन कुछ पल बीते नहीं थे कि चेहरा खुद-ब-खुद लटकने लगा और वे खुद कोने की तलाश में भटकने लगे। तब तक सहकेबनीय शख्स ने एक दूसरे को बताया, दूसरे ने तीसरे को और इस तरह पूरे दफ्तर में ये बात फैल गई कि दिल्ली में कॉमनवेल्थ के दौरान हो रही हिंदी की दुर्दशा ने उन्हें दुखी कर दिया है।
जब पूरा देश हिंदी सप्ताह मना रहा हो । तनी हुई साहित्यिक रीढ़ नरम तकियों और मुलायम गद्दों का सहारा ले चुकी हो, तब महानगर में दशकों के अनुभव वाला हिंदीमुखी एक जीव कोने की तलाश में भटक रहा था। हद तो तब हो गई, जब उन्हें दफ्तर में कोई ऐसा कोना भी न मिल पाया, जहां वे कुछ पल बैठकर दशकों की हिंदी सेवा के बाद की इस अकस्मात उपेक्षा को देख, हिंदी सेवा के प्रोविडेंट फंड पर कुछ चिंतन कर पाते। क्षुब्ध होकर वे पास के सिंधी ढाबे में आ गए। गरम-गरम रोटी की सौंधी गंध,बेयरे की चिल्लपों और बरतनों की गिरती-संभलती आवाजों के बीच उनके दिल से ये आवाज उठी कि अब दिल्ली की हिंदी दिल्ली को मुबारक,अपनी हिंदी को उपर उठाना होगा। चाय आते ही, वे फ्लैशबैक में चले गए। तब क्या दिन थे। पूरे कस्बे में वे हिंदी और दिल्ली को एक साथ हनुमान की तरह कंधे पर उठाए घूमते थे। दिल्ली के महान हिंदीसेवी और साहित्यकार दुर्दशा प्रसाद ने एक चिट्ठी क्या लिख दी, महीनों आस-पास के कई कस्बों और छोटे शहरों में ये बात गूंजती रही कि हिंदी के दुर्दशा प्रसाद ने रामगढ़ के अनोखेलाल को चिट्ठी में भाई साहब लिखा है।
हिंदी सप्ताह शुरु नहीं होता कि आकाशवाणी और बैंकों से आमंत्रण आ जाता। भाई साहब का बुखार चढ़ता रहा। फिर प्रिय भाई, बन्धु, दोस्त और आदरणीय जैसे संबोधन भी रास्ते में आए, लेकिन तब तक वे दिल्ली आ गए थे। यहां आकर उन्हें पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि आखिर हर शहर में एक दिल्ली दरवाजा क्यों होता है? हर शहर से एक ट्रेन हर रोज सैकड़ों लोगों को लाकर दिल्ली में क्यों पटक देती है? तभी उन्होंने ये बुद्ध वचन अपने साथ आए एक छोटेलाल को कहा था कि हिंदीजीवी को दिल्लीमुखी होना बहुत जरूरी है। पालना कहीं झूले, लेकिन पलंग तो दिल्ली ही देती है।
अपने छोटे से कस्बे में हिंदी को ऊपर उठाने के लिए जो झोला लटकाया था, दिल्ली में उस झोले का वजन बढ़ता गया। हिंदी के अखवार, रेडियो, चैनल्स, बैंक, बीमा कंपनियां, सरकारी और गैर सरकारी दुकानों में हिंदी के नाप पर होनेवाले कीर्तनों में अनोखेलाल की तैयार की गई धुनें खूब बजती रही। हर सम्मान के साथ मिलनेवाले शॉल को वे अपने कस्बे के छोटेलाल जैसे छोटे-छोटे दोस्तों को भेजते रहे, जो अनोखेलाल की तरह हिंदी के विकास की कोई नई धुन तो नहीं बना पाए थे, लेकिन उनका पुराना रिकार्ड ही काफी था। शॉल भेजने के पीछे अनोखेलाल की एक सोच ये भी थी कि कस्बे में हिंदी के विकास का जो अलख जगाया था, उसकी गर्मी बनी रहे।
लेकिन इस बार के हिंदी सप्ताह ने अनोखेलाल को खुद अपनी सोच पर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। न किसी बैंक से, न वीमा कंपनियों से, न पुलिस से और न ही पब्लिक से कहीं से कोई न्यौता नहीं। "ऐसा कैसे चलेगा? " चाय की अंतिम घूंट ने मुंह का स्वाद और बिगाड़ दिया। लेकिन तभी उनके मन में एक जोरदार आईडिया आया और वे पास में ही एक दैनिक अखवार में अपने दोस्त से मिलने चले गए। दूसरे दिन लोगों ने ये खबर पढ़ी कि अनोखेलाल सरकारी दफ्तरों में हिंदी की दुर्दशा पर पांच दिन के अनशन पर बैठने जा रहे हैं। खबर अनोखेलाल ने भी पढ़ी और चेहरे पर मुस्कान तैर गई। शायद वो मुस्कान कह रही थी, दिल्ली की हिंदी दिल्ली को मुबारक, अब अपनी हिंदी की जय-जय ।
----देव प्रकाश चौधरी

Tuesday, September 21, 2010

मेरी, तेरी उसकी जेब

क्या आपको नहीं लगता है कि गले मिलकर जेब काट लेने की परंपरा कितनी पुरानी है, इस पर अब विस्तृत शोध की जरूरत है? मेरे एक दोस्त को ऐसा लगता है। उनका मानना है कि अब वक्त आ गया है और सारे देश को ये पता चले कि झालावाड़ जिले के भवानीमंडी में कुछ लोगों ने नेताओं की पोशाक पहनकर, नेताओं से गले मिलते हुए, नेताओं की जेब काट लेने का जो स्टाइल चलाया , उसका आईडिया कहां से आया था। यूं तो अपने देश में गले मिलने की परंपरा काफी पुरानी है। भऱत से गले मिले थे राम, लेकिन क्या तब जेब कटने जैसी ऐतिहासिक घटना हुई थी?महाभारत में भी राजाओं के गले मिलने के कई प्रसंग हैं, लेकिन जेब कटने की बात अगर सामने आती तो बी आर चोपड़ा का महाभारत कुछ और होता। मामा शकुनी महामंत्री विदुर से गले मिलते और चुपके से उनका बटुआ खींच लेते या फिर राजा विराट का राजा द्रुपद से गले मिलने का सीन होता और विराट नरेश कंगाल होकर घर पहुंचते। शायद ये रामायण काल या महाभारत काल में नहीं हो पाया था, लेकिन क्रांति करने वाले बीते कल की ओर कहां देखते हैं? झालावाड़ जिले के भवानीमंडी के जेबकतरों ने वो कर दिखाया,जो मुंबईया फिल्मों की फैक्ट्री में काम करने वाले बड़े-बड़े पटकथा लेखकों को भी ख्याल नहीं आया।
वो जेबकतरे दल बदलना जानते थे। रैली किसी भी पार्टी की हो, उसी पार्टी का झंडा लेकर दल-बल के साथ नेताओं की वेश-भूषा में पहुंचते थे और बड़े-बड़े नेताओं से गले मिलते हुए उनकी जेब काट लेते थे। उन जेबकतरों ने पहले-पहल तो झालावाड़ में ही प्रैक्टिस की, फिर कुछ दिनों के बाद वे अखिल भारतीय हो गए।
क़ालेज में पढ़ाने वाले मेरे वे दोस्त चाहते हैं कि जेबकतरों के इस नए स्टाइल पर विश्वविद्यालयों में शोध हो। उनका मानना है कि देश में जेबों की संख्या काफी है और कुछ लोग अपने-अपने जेब में देश लेकर घूमते हैं, इसलिए इस बात पर विश्वविद्यालयों के होनहार रिसर्च स्कॉलरों को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इस शोध के बारिक पहलुओं पर अपने महत्वपूर्ण उदगार व्यक्त किए-"इस शोध के बाद ये बात साफ हो जाएगी कि नेताओं की जेब और आम आदमी की जेब में क्या-क्या समानताएं और क्या-क्या असमानताएं हैं। फिर इस शोध के बाद पता चलेगा कि जानवरों की रूचि जेब में क्यों नहीं हैं? जेब कैसे बनती है? जेब कैसे बढ़ती है। एक जेब में कैसे समा जाता है पूरा का पूरा देश? अंदर की आस्तीन में छिपी जेबों का सौंदयशास्त्र क्या है? जेबकतरे कैसी जेबें पसंद करते हैं? जेबों में सिक्के रखने चाहिए या रुपए? आखिर कोई क्यों काटता है किसी की जेब? जेब कट जाए तो कैसे मातम मनाएं? आदि। निमंत्रण देकर जेब काटने की शैली को वे प्राथमिकता देना चाहते थे क्योंकि झालावाड़ के वे जेबकतरे भी जिनकी जेब कटती थी, उनको वे फूलों का गुलदस्ता भेंट करना नहीं भूलते थे।
अपनी बातों में बढ़ती रूची देखकर वे इस शोध का प्रैक्टिकल पहलू भी समझाने लगे-" इससे जेब काटने और जेब बचाने के नए-नए पैंतरे सामने आएंगे। जेबों की दुनिया का विस्तार होगा। जेबों से लोगों को रोजगार मिलेगा। जेबों की कई नई किस्में भी सामने आएंगी और उसका मतलब समझ में आएगा, जैसे मौसमी जेब, मरियल जेब, मतलबी जेब,मनमानी जेब, खास जेब, आम जेब,अमर जेब,पारदर्शी जेब, पारंपरिक जेब,जालंधरी जेब,जुगल जेब, जुगत की जेब,जय जेब,अजेय जेब आदि।"
ऐसा लगा मानो वे जेब काटने के मामले में बकायदा आंदोलन चलाने के मूड में आ गए हों-" देश में जेब काफी है और जेब काटने की योग्यता वाले कई लोग जो आज अफसर, नेता या बुद्दिजीवी बने फिरते हैं, यदि किस्मत साथ देती तो वे जेब काटते और ऐसी काटते कि किसी को कानों-कान खबर नहीं लगती। ऐसे लोगों को अगर सही तरीके से हेंडल किया जाए और मौका दिया जाए तो देश का अर्थशास्त्र मजबूत हो सकता है। अमेरिका से मिले, उसकी जेब खाली। ब्रिटेन से मिले,उसकी जेब का पत्ता साफ।" बात जम रही थी और मेरे अलावा भी कई श्रोता उसकी तरफ टकटकी लगाए खड़े थे।
वे बोले कि मैं आज ही झालवाड़ की तरफ निकल रहा हूं। हवालात जाकर उन जेबकतरों से मिलूंगा और पूछूंगा कि नेताओं के आने का प्रोग्राम वो चैनल से पता करते थे या अखवार से। अब तक किन बड़े-बड़े नेताओं की जेब उन्होंने और उनकी पूरी टीम ने काटी, इस पर भी उनको जानकारी चाहिए थी। उनके मूड को देखकर लगा कि अगर उन्हें मौका दिया जाए तो वे जेब काटने को जिंदगी जीने की कला साबित कर देंगे और कॉलेजों में बकायदा इसकी पढ़ाई शुरु हो जाएगी। हम लोग कुछ बोलना चाहते थे ,लेकिन वे रुके नहीं। गति को देखकर लगा कि अब वे झालावाड़ पहुंचकर मेरी, तेरी उसकी जेब का हिसाब लेकर ही दम लेंगे।
-देव प्रकाश चौधरी
अमर उजाला में 22.09.10 को तमाशा कॉलम में प्रकाशित

Friday, June 25, 2010

अंधेरी रात में इंडिया गेट पर

उस तरबूज से भी बड़ी खामोशी हमारे बीच खड़ी थी और अब हम दोनों बैठ चुके थे। दूरी वही थी। लोकेशन भी वही। हम चुप थे। मौन ने न जाने इस देश में कितनों को देवता बनाया। पढ़े लिखे एक विद्वान टाईप के महानुभाव को पार्कों में, सड़कों पर या फिर किसी सभा में मैंने दसियों बार मौन बैठे देखा था।
वह मेरे सामने खड़ी थी और मैं उसके सामने। मेरे और उसके बीच खड़ी थी खामोशी। दूर पर खड़ा था इंडिया गेट, जिसने सामान्य बातचीत में भी ब्रेक डांस करने वालों को न जाने कितनी बार खामोश रहना सिखाया होगा और कड़कती धूप में खड़ा भी किया होगा। पर, हम दोनों उस शाम खामोश खड़े रहने के लिए इंडिया गेट नहीं पहुंचे थे। बगल में चारों तरफ सड़कों पर प्रगति की रफ्तार थी। नीचे हरी घास पर क्षण भर बैठ लेने का सुख था और उपर बेमतलब सुहावना होने का निमंत्रण देता आसमान। लेकिन हरी घास का सुख, सुहवना होने के आमंत्रण और प्रगति की रफ्तार के वावजूद खामोशी डट कर खड़ी थी।
चुप रहकर प्रतीक्षा करने की सीख तीसरी क्लास में मास्टरसाहब ने डंडे की चोट पर बताई थी। कुछ बड़े हुए तो हाई स्कूल के टीचर ने सबके सामने कहा था, सिंदुर पुतवाना है तो पत्थर बनना सीखो। सचमुच पत्थर की तरह खड़े थे हम। और ये सब उस इंडिया गेट के लॉन पर हो रहा था, जहां दिल्ली में सबसे पहले नया साल उतरता है, या गिरता है ,जहां कई जोड़ों ने वक्त काटने का सबसे मौलिक,अप्रकाशित और अप्रसारित आईडिया खोज निकाला है, जहां आईसक्रीम वाले किसी को खामोश खड़े नहीं रहने देते और जहां एक साथ सैकड़ों आंखों से निकली ज्योति पल भर में ही किसी जोड़े का एक्सरे कर डालते हैं, वहां हम दोनों के बीच पसरी थी खामोशी। ऐसी खामोशी, जिसे पहली बार मैंने एक परिचित के अंतिम संस्कार में महसूस किया था और फिर कई सालों बाद दिल्ली में एक महान कवि की एक महान कविता के पाठ के बाद। ऐसी खामोशी तीसरी बार मेरी जिंदगी में आई थी।
मेरे साथ काम करने वाले एक पत्रकार जिनके चेहरे पर इस साल से वानप्रस्थी छाप दिखने लगी है ,वे अक्सर दफ्तर में मचे चिल्लपों पर कहते हैं कि मौन सदा मंगलकारक है और बोलना दंगलारक। कॉलेज में मेरे एक टीचर थे जिन्हें मौन का महागुरू कहें, तो शायद उन्हें छोटा संबोधन लगेगा। फिजिक्स पढ़ाते थे। रेडियो की बिगड़ी फ्रिक्वेंसी सुधार लेना आसान था लेकिन उनकी चुप्पी तोड़ना बेहद कठिन। दो साल में एक ही बार बोले थे, कि जब मैं मैगनैट बोलूं तो समझो कि कम से कम इतना बड़ा चुंबक है। उन्होंने हाथ का जो ईशारा किया था, उसमें कम से कम दो किलो का तरबूज तो आ ही जाएगा।
उस तरबूज से भी बड़ी खामोशी हमारे बीच खड़ी थी और अब हम दोनों बैठ चुके थे। दूरी वही थी। लोकेशन भी वही। हम चुप थे। मौन ने न जाने इस देश में कितनों को देवता बनाया। पढ़े लिखे एक विद्वान टाईप के महानुभाव को पार्कों में, सड़कों पर या फिर किसी सभा में मैंने दसियों बार मौन बैठे देखा था। उस मौन का महत्व मुझे समझ में आया तब, जब एक गोष्ठी में वे पहली बार बोले। सबको बोलने दिया और फिर बोले तो बोलते चले गए। साहित्य को लेकर उठे थे शहर के गटर पर आकर बैठे। कवि, समाजवाद, महंगाई,प्याज,सड़क और गंदे नाले तक को समेट लिया। खामोशी की खुशबू फैलाकर रौब का डंडा चलाने का ये आईडिया मुझे बड़ा पसंद आया था, लेकिन मौका नहीं मिला। बचपन से ही हम बक-बक करनेवालों की उस बेशर्म टोली में शरीक माने जाते रहे, जिसके लिए कोई सुनने वाला न भी हो तो किसी बिजली के खंभे का सहारा ही काफी है।
उस शाम हमारे पास बिजली के खंभे का सहारा भी नहीं था। हम सचमुच मौन थे और दिल्ली के उस इंडियागेट पर थे, जिसका शोर जगत प्रसिद्ध है। पहली बार मुझे लगा कि किसी लड़की के सामने चुप रहना भी, लड़की पर गौर करने का एक रास्ता है। लेकिन गौर करने की ये सीमा भी बहुत देर पहले खत्म हो चुकी थी। अचानक चमत्कार हुआ और उसके चेहरे पर क्लोजअप मुस्कान नजर आई। वह बोली। पहली बार बोली-''मुझे घऱ जाना होगा। मेरे अंकल आने वाले हैं। कनाडा में रहते हैं,इनआरआई हैं। कई दिनों से हमलोग कर रहे हैं उनका इंतजार।" एनआरआई फूफा के इंतजार की खबर से लंबी खामोशी को गूंथकर वह मेरे सामने ही दिल्ली में प्रगति की रफ्तार की तरह चली गई। अब मैं अकेला था और सोच रहा था कि उस लड़की के दिल में एनआरआई के आने की उम्मीद के अलावा भी कोई उम्मीद है या नहीं। मुझे लगने लगा कि हर खामोशी तोड़ने के लिए एक अदद एनआरआई का आना जरूरी है। बेहद जरूरी।
-देव प्रकाश चौधरी
(अमर उजाला में 24 जून,2010 को तमाशा कॉलम में प्रकाशित)

Tuesday, June 15, 2010

एक ब्लॉगर की प्रार्थना

हे शिव! तुम तो सब जानते हो तो फिर क्या कहने आया हूं, ये भी जान ही रहे होगे।
हे रूद्र ! ऐसी ताकत दो कि मैं दूसरे ब्लॉगर को पछाड़ सकूं,टिप्पणी दिलवाओ, पसंद पर क्लीक करवाओ, अखबारों में चर्चे हो, इसका भी जुगाड़ कर, सात सोमवार का व्रत करूंगा ।
हे महेश!...मेरा मामला अक्सर ब्लॉगवाणी पर आकर अटक जाता है, कुछ ऐसी तरकीब भिड़ा कि वहां लिस्ट में मेरा ही मेरा नाम हो ।


हे कैलाश के वासी!..तुम तो जानते हो कि मैंने अपने ब्लॉग पर ट्रैफिक सिग्नल भी लगा रखा है, लेकिन मेरा ब्लॉग सिर्फ दिल्ली-दिल्ली में ही क्लीक होता है, कुछ करो प्रभो, गांजा-भंग चरस-अफीम जो चाहिए चढ़ाउंगा। मेरे ब्लॉग को हिट करा दे, फिर कैलाश पर जाकर विश्राम करना, रास्ते का सारा इंतजाम मेरा ।
हे महामृत्युजय !...तुम तो जानते हो कि ब्लॉगवाणी में अब पसंद पर एक बार ही क्लीक कर सकते हैं, कुछ लोग कई ई-मेल आईडी बनाकर पसंद पर क्लीक करते हैं, लेकिन तुम मेरे कंप्यूटर को ऐसी शक्ति दो कि बैठे- बैठे दे दना-दन...समझ गए न..?
हे अवधूत! कुछ दिन पहले ब्लॉगर प्रसाद को अपना गुरु बनाया था, सोचा था महाजन येन गत पन्था...लेकिन तुम तो जानते ही हो कि महाजन भी अब दूसरी राह पकड़ने लगे हैं । टीवी के एक रिएलिटी शो में देखा था कि महाजन स्वीमिंग पुल की तरफ जा रहे हैं । मैं तैरना नहीं जानता प्रभो, इसलिए हे असली बिग बॉस...ऐसी ताकत दो कि पल भर में ब्लॉगवाणी रूपी भवसागर को पार कर पाऊं।ऐसा रास्ता दिखा कि ब्लागर्स की दुनिया में सिर्फ मैं ही मैं रहूं,बाकी का क्या होगा, ये भी तुम सोचो..।
हे नागधर ! तू कुछ विष मुझे भी दे,मैं देख रहा हूं कि कुछ विषैले ब्लॉगर्स भी ब्लागवाणी पर भटकते हैं और लोग उनसे डरते भी हैं।
हे औंकार ! मैं टीवी में काम जरूर करता हूं प्रभो, पर स्क्रीन पर मेरा चेहरा कभी दिखता नहीं, इसलिए ब्लॉग की दुनिया में भी मेरा कोई गुट नहीं बना । तू ब्लॉग के महंतों को सपने में डरा । उसे कह कि महंती की कुर्सी छोड़े । मेरा कुर्सी मोह जाग गया है भगवन ।
हे भूतनाथ ! तू तो दुनिया की सारी गालियां जानता है । एक ब्लॉगर दूसरे को जमकर गालियां देते हैं,इस मामले में मैं बहुत कमजोर हूं । मुझे शक्ति दे प्रभो ।
हे करूणानिधान !...मेरी समस्या का निदान कर...कुछ वक्त चाहिए तो ले ले...लेकिन इतना मत लेना जितना कि किसी नए कवि की किताबों की भूमिका लिखने में लेते हैं हिंदी के महान कवि । जो भी कर जल्दी कर प्रभो,क्योंकि मामला फौजदारी का है।

कहां गई हंसी?

पहले हंसी दिखाई देती थी, फिर हंसी सुनाई पड़ने लगी...तब हंसी बाजार में खिलखिलाकर भाग रही थी और लोग उसके पीछे भाग रहे थे...लेकिन ये भागमभाग भी अब थम चुकी है...रिकार्ड घिस गए हैं...खजाना खाली है...और अब टीवी की हंसी हंसी बाजार के उसी नुक्कड़ पर खड़ी है, जहां दाग अच्छे लगते हैं, बीमार होने का मजा ही कुछ और है और जहां सब कुछ ठंडा-ठंडा कूल कूल है।


इंसान पहली बार कब हंसा होगा? हंसी खुद पर आई होगी या दूसरों पर, यह सदियों से बहस का विषय है। लेकिन कुछ महीने पहले तक चैनलों में हंसी को लेकर जो घमासान और हाहाकार मचा था, उसका नतीजा अब सामने है..। हंसी अब सहमी हुई सी इस कदर खड़ी है मानो डाइटिंग के दौर से गुजर रही हो।
पहले टीवी ऑन करते ही पता चल जाता था कि हंसी का दौर जारी है। हर चैनल के पास थी हंसी की खुराक। कहीं हंसी के शहंशाह तो कहीं बादशाह। कहीं हंसी के अवतार तो कहीं भगवान। कोई हंसा कर एहसान कर रहा है तो कोई कह रहा है राज मैं ही करूंगा।
हंसी के गोलगप्पे, हंसी के छींटे, हंसी की बौछार,हंसी की फुलझड़ी, हंसी की फुहार, हंसी की मार,हंसी की दहाड़, हंसी के आर-पार,होश उड़ा देने वाली हंसी, सन्न कर देने वाली हंसी, रूलाने वाली हंसी। बताइये, अब क्या चाहिए? इतनी हंसी और इतने प्रकार की हंसी कभी किसी ने देखी थी।
हर किसी की जिंदगी से जुड़ चुके थे-राजू श्रीवास्तव, भगवंत मान, सुनील पाल, एहसान कुरैशी,प्रताप फौजदार और भी कई बेनाम -अनाम सुरमा...लेकिन ये जोड़ फेविकोल का जोड़ साबित नहीं हुआ....। सबको लग रहा था कि शातिर कातिलों, साजिश रचने वाली सासों, नकाब ओढ़नेवाले गुनाहगारों,अपहरण की आंटियों, जिस्मफरोशी के टोकनों और बेतूकी हरकतें करने वाले बाबाओं को छोड़कर खबरिया चैनल अचानक हंसने-हंसाने पर क्यों उतारू हो गए ? तो इसका सीधा सा जवाब यही है कि आज हंसी बाजार के उसी नुक्कड़ पर खड़ी थी, जहां दाग अच्छे लगते हैं, बीमार होने का मजा ही कुछ और है और जहां सब कुछ ठंडा-ठंडा कूल कूल है।
पहले हंसी दिखाई देती थी, फिर हंसी सुनाई पड़ने लगी...तब हंसी बाजार में खिलखिलाकर भाग रही थी और लोग उसके पीछे भाग रहे थे ।
टीवी पर इसके पहले भी हंसी के कैर्यक्रम थे, लेकिन लाफ्टर चैलेंज के विजेताओं के साथ-साथ घायल पराजितों की एक ऐसी जमात खड़ी हो गई है...जो आपको बेवजह हंसाना चाहती है। हंसाते तो चाचा चौधरी भी थे। मुल्ला नसीरूद्दीन ने भी हंसाया है लोगों को, लेकिन वो जमाना कोई और था। तब शायद किसी को अपनी हंसी और हंसाने की कला पर इतना गुमान नहीं था कि कह सके-हंसोगे तो फंसोगे। तब इतनी हंसी की ऐसी की तैसी भी नहीं हुई थी।
लोग हंसते रहे हैं। लोग हंसते रहेंगे। लेकिन हंसी कभी इतनी नहीं बिकी, जितनी कि कुछ साल पहले तक बिकी..।
टीवी के इतिहास में शायद हंसी पहली बार टीआरपी के उस दौड़ में शामिल हो गई है,जिस दौड़ में कातिल की चाल, जिन्नात की पुकार, भूत की पसंद और पुजारी का पाखंड, सब बड़ी तेजी से भाग रहे थे...और सबसे ज्यादा तेज हंसी ने भागना शुरु किया। लेकिन इस भागमभाग के बाद हालात ये हो गए कति सन्नाटे को चीरती सनसनी नहीं, सन्नाटे को चीरती हंसी ने सबको सन्न कर दिया..।
देव प्रकाश चौधरी

Tuesday, March 30, 2010

ब्लॉगर प्रसाद का वजन बढ़ रहा है भाई!

बुजुर्गों ने कहा था बात में वजन पैदा करो। ऐसी पोस्ट लिखो कि बात निकले तो दूर तक जाए। ब्लॉगर प्रसाद ने कोशिश तो बहुत की, लेकिन बात में वजन बढ़ने की बजाय शरीर का वजन बढ़ने लगा। चार साल पहले जब ब्लॉग शुरु किया था तो 53 पर था। चार साल बाद 87 किलो का शरीर लेकर इधर से उधर डोलने वाला ब्लॉगर प्रसाद समझ नहीं पा रहा है कि बात का वजन जिस्म में कैसे प्रवेश कर रहा है? पहली बार उसे इस बात का अहसास हुआ है कि अब तक जितनी बातें उसने कही, उसमें तो वजन ही नहीं था...। उसके लिखे, कहे, बतियाये और गलियाये हर शब्दों का वजन कभी ग्राम तो कभी ओंस, कभी छटांक तो कभी पाउंड बनकर उसके शरीर में प्रवेश कर रहा था। वजन रहित शब्द, वजन रहित पोस्ट और वजन रहित विषय, माथा चकरा गया ब्लॉगर प्रसाद का। ये वजन भी एक किस्म का बकवास है, पहली बार सोचा उसने....लेकिन अब भी तो उसके जिस्म का वजन बढ़ रहा था। जबकि अब बात ब्लॉग पर ही नहीं साइट और अखबार के पन्नों पर हो रही थी..। एक से एक बहस...एक से एक विषय और एक से एक टिप्पणी करनेवाले...तो क्या अब भी उसकी बातों का वजन शिफ्ट हो रहा था?
पाठक गाली देते होंगे, उसने मन ही मन में सोचा। वैसे भी जिस अखबार में वो लिखता था, उसका वजन इतना कम था कि दूसरी मंजिल से उपर रहनेवालों तक हॉकर फेंक ही नहीं पाता था। बात में वजन नहीं अखबार इतना हल्का कि 10 फीट से उपर ही न जाए...। ब्लॉगर प्रसाद को खुद पर झुंझलाहट होने लगी...। तभी उसे याद आया अखबार न सही, हाथ में एक साईट तो है। लेकिन साईट में भी शब्द तो हल्के ही होंगे, सोचते ही उसके तेवर ठंडे पड़ गए...। तो क्या करें? सुबह की चाय पर सोचना शुरु किया...दोपहर के लंच तक कोई हल नहीं निकला...। सवाल यही कि शरीर का वजन कम हो तो बात में वजन पैदा हो...। जिम...एक्सरसाईज...मार्निंगवॉक...ये सब आईडिया आया था...लेकिन क्या गारंटी कि शरीर हल्का होते ही शब्द भारी हो जाएंगे। कहीं ऐसा न हो कि शरीर भी हल्का...और बात भी हल्की? ऐसे में तो साहित्यिक..गैर साहित्यिक विवाद का एक झौंका भऱ उसे उड़ा ले जाएगा...।
तो फिर क्या करें, पहली बार महानगर में रहते हुए ब्लॉगर प्रसाद ने खुद को असहाय पाया...।
बहुत सोचा, बहुतों से ज्ञान लिया...और आखिर उसे मिल गया एक फार्मूला....-" शऱीर का वजन बढ़ रहा है तो बढ़ने तो...लेकिन खुद मत लिखो..दूसरों को लिखने दो...और उस लिखे पर मुस्कुराओ...झगड़ा कराओ..गाली दिलवाओ...जरूरत पड़े तो कींचड़ उछालो...। तभी बात में वजन न भी हो तो महंती रहेगी बरकरार...।"
ब्लॉगर प्रसाद ने चैन की सांस ली...अब उसे इस बात की फिक्र नहीं थी कि उसके बात में वजन नहीं है। गर्व था इस बात पर कि उसके साईट पर...उसके ब्लॉग पर गालियां तो थीं...।
इसके साथ ही ब्लॉगर प्रसाद ने अपने वजन को खुला छोड़ दिया है....।
-देव प्रकाश चौधरी