Monday, July 4, 2011

मिजाज सवा चालीस का पहाड़ा

चलते हुए मन 'में-में' करता है, 'हक-हक' करता है, 'अस-बस' करता है और कभी-कभी 'कस -मस' भी करता है. क्यों नहीं करेगा भई, सड़क भले ही अब पक्का और चौड़ा हो गया हो, लेकिन रास्ता तो वही है न, जिसपर कभी लाल पान की बेग़म अपनी बैलगाड़ी में बैठकर इतराई थी. इन्हीं रास्तों पर तो हीरामन की बैलगाड़ी ने लीक छोड़कर हीराबाई को सुनाया था, महुआ घटवारिन का गीत. ऐसी सड़क पर चलते हुए मन में ही नहीं पीठ में भी गुदगुदी होती है. ठीक गाड़ीवान हीरामन की तरह. इस्स... जुलुम बात, पीठ में भी कहीं गुदगुदी होती है? होती है, कभी सिमराहा आ कर तो देखिए...कभी औराही हिंगना पहुंच कर देखिए कि कैसे फनीश्वरनाथ रेणु ने अपने गप्पों को शीर्षक लगाकर हिंदी साहित्य में 'टटकेपन' का अहसास कराया था....टटकेपन का ‘टीका’ बाद में, पहले औराही हिंगना की बात.

फ़ारबिसगंज से निकलकर औराही हिंगना गांव की ओर बढ़ते हुए मन के साथ साथ, सचमुच पूरे शरीर में झुरझुरी सी होने लगी थी-किसके घर से कागा अभागा नकबेसर लेकर भागा होगा? किस घर में झालदार बातें सुनने के बाद सिरचन के मर्मस्थल को 'ठेस' लगी होगी? किस गांव के किस टोले में 'पंचलाइट' जलाने के एवज में पंचों ने गोधन को सिनेमा का गाना गाने की छूट दी होगी? दसदुआरी पंचकौड़ी से यहीं कहीं किसी टोले में तो शोभा मिसिर के बेटे ने साफ साफ कहा था-तुम जी रहे हो कि थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया? जैसे जैसे औराही-हिंगना करीब आ रहा था,रेणु के एक पात्र एक एक कर सामने आते जा रहे थे.
चिड़िया-चूरमून की आवाजें,मोटरगाड़ियों का शोर, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में पीछे रह जाने वाले साईकिल सवारों की गालियां, स्कूल के कुछ जुवाये हुए लड़कों की मटरगश्ती, सड़क के किनारे बैठकर छोटे से लाउडस्पीकर के सहारे “खाऊं की खुजाऊं..." जुमले के साथ खुजली की दवा बेचने वाले कविराज और छोटी-छोटी लेकिन बेहद खूबसूरत चिड़ियों वाले एक पिंजरे से भागते ट्रक ड्राइवरों को लुभाता हुआ 13-14 साल का एक लड़का... बाहर का नजारा दिलचस्प था.

ड्राइवर ने बताया,"समझिए कि बस आ ही गए." तभी पूर्णिया-फारबिसगंज हाईवे से सटे सीमेंट के एक सादे और सपाट-से द्वार पर जाकर नजर ठहर सी गई-रेणु द्वार. द्वार के बगल में ड्राइवर ने गाड़ी खड़ी कर दी और खुद नीचे उतरते हुए बताता गया कि द्वार से जो सड़क जा रही है, वही औराही हिंगना जाएगी... खुद गाड़ी से उतरा तो पता चला कि उस जगह का नाम है सिमराहा और अब कुछ ही दूर है औराही हिंगना.

रेणु द्वार हाल की उपज है. पहले सिर्फ सड़क जाती थी,द्वार नहीं था. उससे पहले वह सड़क भी कच्ची रही होगी. महान कथाकार रेणु के सम्मान में यहां इस द्वार का निर्माण हुआ है. बाहर से आनेवालों को सुविधा हो गई है, लेकिन इससे पहले भी रेणु की कथा दुनिया को जानने और समझने के लिए आने वाले लोगों को कभी कोई दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि रेणु सिर्फ अपने लोक को शब्द ही नहीं देते थे, अपने लोक को जीते भी थे, तभी तो लिखते हुए उन्हें अपने लंगोटिया यारों की बेतरह याद आती थी- “इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है. वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक हैं, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं. वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं. कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?”

मैं भी रेणु द्वार पर खड़े होकर 'कुछ वहां वाली' बात सुनने का मोह संवार नहीं सका. आगे बढ़े तो मिले घोतन दास. घोतन दास सिर्फ पान की दुकान ही नहीं चलाते, 'मलमल के कुर्ते पर छींट लाले-लाल, पान खाए सैंया हमार हो', गीत भी गुनगुनाते हैं. घोतन दास ने रेणु की कहानी पर बनी फिल्म 'तीसरी कसम' नहीं देखी है. किस्सा सुना है और फारबिसगंज में आए एक ठेठर (थियेटर) की बदौलत सालों से यह गाना उनके सर पर चढ़कर बोल रहा है-“गजबे गाना है कि...सुनकर मिजाज सवा चालीस हो जाता है.”
घोतन की दुकान पर अभी खड़े नहीं हुए थे कि आस-पास यह बात चल निकली, रेणु के गांव को देखने आए हैं, कुछ रिसर्च-विसर्च करेंगे. लोग जमा होने लगे- तूफानमेल रिक्शावाला नरेस, साईकिल पर खाद लेकर घर लौटने वाला छेदी, हीरो होंडा स्पेलेंडर से अररिया जाने के लिए निकला प्रेमशंकर और शायद कहीं नहीं जाने के लिए भी घर से तैयार होकर,झकास कुर्ता-धोती पहनकर, वहां तक आनेवाले सूर्यानन्द...देखते-देखते मजमा सा लग गया.
किसी ने रेणु को देखा था तो किसी ने रेणु को पढ़ा था और किसी ने उनके बारे में सिर्फ सुना था. लेकिन हर किसी के पास इलाके के महान साहित्यकार रेणु के बारे में एक से बढ़कर एक जानकारियां थी....ऐसा लगा मानो हर किसी की जिंदगी से, हर किसी के घऱ से जुड़े हों रेणु. सामाजिक हैसियत, जातिगत व्यवस्था और अमीरी-गरीबी के तमाम विभाजनों से अलग नहीं थी फनीश्वरनाथ रेणु की दुनिया, फिर भी सबको अपने क्यों लगते हैं रेणु.
सवाल का जवाब रेणु खुद अपने आत्मकथ्य में दे चुके हैं-" मैंने रात में भैंस चराया है, रात में पानी में भींगकर मछली का शिकार किया है, जाड़े की भोर में तीन बजे ही उठकर तीसी के फूले हुए खेतों में बटेर फंसाया है, कलाली में बैठकर झूम-झूम कर गीत-गा-गाकर दारू पिया है, बारातों में घोड़ा दौड़ाया है, पगड़ी बांधकर-गांव वालों के साथ मिलकर लाठी से बाघ मारा है. बोलो हो पंचो, अर्थात औराही-हिंगना के निवासियो-मैं झूठ कहता हूं."

"एकदम सच-सच लिखते थे रेणु जी,बहरा चेथरू को तो अमरे कर दिया," मैं रेणु के लिखे में पल भर के लिए खो क्या गया, वहां लगे मजमे में हर कोई वक्ता हो चुका था. बहरा चेथरू की बात प्रेमशंकर ने निकाली थी, सूर्यानन्द ने उसे डपटकर चुप करा दिया-" तू क्या जानता है बे ,चेथरू के बारे में...जब जनम भी नहीं हुआ था तब वो सिधार गए. मैंने देखा है चेथरू को. अरे, औराही के ही तो थे. रेणु जब सिमरबनी स्कूल में पढ़ते थे तो बहरू उन्हें पहुंचा आया करते थे." रेणु के इस पात्र का नाम उनके कालजयी उपन्यास मैला आंचल की याद दिलाती है. उपन्यास की शुरुआत ही चेथरू से होती है-" गांव में यह बात तुरंत बिजली की तरह फैल गई -मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्फ कर लिया है." बात बढ़ती गई और रेणु के कई और पात्र सामने आते गए. मैला आंचल के ही एक और पात्र रामलाल बाबू. रामलाल बाबू घोतन का 'सबजेक्ट' निकला. अबकी बारी उसकी थी-" फारबिसगंज के पास है बथनाहा, और वहां से दो किलोमीटर दूर गांव है- मड़हर. रामलाल बाबू यानी रामलाल मंडल वहीं के थे. जेल में गांधीजी को रामलाल बाबू ने रामायण सुनाई थी."
घोतन एक बार अपने चचेरे भाई की बारात में मड़हर गया था और वहीं ये सारी बातें सुनी थीं और अब तक दर्जनों लोगों को सुना चुका था. रामलाल बाबू का जिक्र मैला आंचल कुछ इस तरह आता है-“बोलता है कि गांधीजी ने रामलाल बाबू को नौआखली बुलाया है....रामबाबू जब गा-गा कर रमैन पढ़ने लगते हैं, तब सुनने वालों की आंखों में खुद लोर ढरने लगता है."
बातचीत में गर्मी आई तो अगल-बगल के कुछ और लोग भी आ गए. पान खाकर, जर्दा घुलाकर पहली कुल्ली फेंकने के बाद सूर्यानंद ने हीरामन की बात निकाल दी. हीरामन यानी तीसरी कसम का नायक-" जानते हैं हीरामन कौन था...रेणु का हलवाहा कह लीजिए, चरवाहा कह लीजिए या फिर गाड़ीवान कह लीजिए, असली नाम था कुसुमलाल. वे जब पटना से सिमराहा आते थे तो कुसुमलाल उन्हें टप्पर गाड़ी पर स्टेशन लेने आता था...अलबत्त मनमौजी आदमी था भाई...रेणुजी गुजर गए तो उसके बाद जीवन पर्यंत न तो बैलगाड़ी जोता न ही अपनी गाड़ी में टप्पर बांधा." सूर्यानंद का गला भर आया था, वे पान की पीक थूकने बगल क्या हटे प्रेम शंकर को मौका मिल गया. प्रेम शंकर ने फेंकन चौधरी का जिक्र छेड़ दिया-"मेरे मौसा के दोस्त थे. जोगबनी में रहते थे...रेणु जी जब भी जोगबनी जाते उनसे जरूर मिलते थे." फेकन चौधरी हाल तक जीवित थे...अपने इस दोस्त को रेणु ने नेपाली क्रांति कथा में जगह दी है.
रेणु पर गप्प चला हो तो उसमें गिरह लगाना बेहद मुश्किल है. तुफानमेल रिक्सावाला बड़ी देर से बोलने का मौका ढूढ रहा था, कोई बोलने ही न दे,लेकिन वो भी बोलेगा. उसने अपने पिताजी से बहुत कुछ सुना है रेणु जी के बारे में . "बाबू बताते थे...जब वो पटना से गांव आते थे...तो रतजगा हो जाता था लोगों का...रात-रात भर गप्प...दुनिया भर के गप्पों का पिटारा था उनके पास....ग्यानी आदमी थे.." नरेश और कुछ बोलना चाहता था लेकिन साइकिल पर खाद लेकर लगभग आधे घंटे से खड़ा छेदी भी तो बोलने के लिए कुलबुला रहा था. छेदी के बड़े भाई राधाकांत रेणु के साथ उठते बैठते थे....तो छेदी ने एक पते की बात बड़े ही रहस्यमयी अंदाज में बताई, लगभग फुसफुसाते हुए-"लाल पानी भी उनको सूट करता था...कलकत्ता-पटना से आते थे तो कभी-कभी ढेर सारा बीयर लेकर आते थे...." बीअर का जिक्र आते ही छेदी की आवाज साबिक सम पर आ गई-"बड़का भाय बताते थे कि बीयर को ठंडा करने के लिए कमाले का तरकीब निकाले थे रेणु जी...कूड़ में बोतल देकर उसे कुईयां में डूबा देते थे. कई पहर बोतल पानी के अंदर पड़ा रहता ... कुईंया के पानी से जब बीयर कनकन ठंडा हो जाता था..तो फिर निकाल के उसको पीते थे.... "
रेणु के दोस्तों की बात, रेणु के किरदारों की बात और रेणु के बीयर की बातों ने औराही हिंगना को दोखने का मोह और बढ़ा दिया....उनलोगों से विदा लेकर मैं तो अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गया... वहां के जमघट में अब भी रेणु पर बातें जारीं थीं. अब मैं औराही हिंगना की ओर बढ़ रहा था..बांस-फूस की बनी बस्तियां मिट रही हैं, पक्के मकानों की रंगत निखर रही है.

लुंगी और हाफ कुर्ते में एक बुजुर्ग आते दिखे तो मैंने गाड़ी रोकने को कहा. मैं गाड़ी से उतरा जरूर, लेकिन मुझे कुछ पूछने की जरूरत नहीं महसूस हुई, खुद उन्होंने ही पूछा-" दिल्ली-विल्ली से आए हैं क्या? रिसर्च-विसर्च का काम चल रहा होगा...रेणु बाबू के घर जाना है आपको ?” मैं लगभग आवाक की मुद्रा में खड़ा था, वे फिर बोल उठे-"बड़े ही फेमस राइटर थे रेणु बाबू..खुद तो अमर हो ही गए...गांव टोले खेत खलिहान, दोस्त दुश्मन सबको अमर कर दिए...."
उन्होंने अपना नाम बताया राधे कृष्ण मल्लिक, पास के ही एक गांव में टीचर हैं. उनके बताए रास्ते पर में आगे बढ़ गया...और कुछ ही पलों में में देश और दुनिया के महान कथाकार फनीश्वर नाथ रेणु के घर के आगे खड़ा था. पीठ में फिर से गुदगुदी होने लगी थी-पहले रेणु का घर के बारे में कुछ इस तरह का पढ़ने को मिलता था-" फूस का मकान, आंगन में कबूतर का दड़वा, मकान के पश्चिम में बांसबाड़ी, उत्तर की ओर झुग्गी झोपड़ियां और कुछ आगे जाकर आम के बगीचे. दरवाजे पर बहुत पुराना कुआं,जिसकी दीवारों पर चित्रकारी....." अब कुछ बदला-बदला लगता है.
घर के आगे रेणु जी के छोटे पुत्र अपराजित राय से मुलाकात होती है. वे बताते हैं कि रेणु जी के चौकड़े (दरवाजा,जहां उनकी बैठक लगती थी) को फिर से बनवाया गया है.लेकिन ठीक उसी तरह जैसा कि रेणु जी के समय था. चौकड़ा बनाने वाले कारीगर मोहम्मद महमुद्दीन का दावा है कि रत्ती भर का भी हेर-फेर नहीं-" लेकिन इसकी लंबाई-चौड़ाई और ऊंचाई में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया गया है. एक इंच का भी फ़र्क नहीं है. फ़र्क सिर्फ़ यह है कि इसे नयी डिजाइन और नया कलेवर दिया गया है."

रेणु जब थे तो गांव में बिजली नहीं थी. अब बिजली आ गई है, इसे अपराजित एक बड़ा बदलाव मानते हैं.रेणु जी के सबसे बड़े पुत्र पद्म पराग राय वेणु के बारे में पूछता हूं, तो पता चलता है, वे किसी काम से कटिहार गए हैं. रेणु जी के एक और पुत्र दक्षिणेश्वर भी बाहर थे. अपराजित से अभी ठीक ठंग से बातचीत हो भी नहीं पाई थी कि लुंगी और बनियान में एक विदेशी शख्स को देखकर चौंक सा गया. खांटी-देहाती बनकर घूमनेवाले उस विदेशी शख्स के बारे में जानने की लालसा बढ़ गई. पता चला उनका नाम इयान बुलफोर्ड है, वे टेक्सास, अमरीका से आए हैं और इन दिनों आंचलिक भाषा और ठेठ बिहारी ग्रामीण जीवनशैली को समझने के लिए मगजमारी कर रहे हैं. इयान का ज्यादातर वक्त रेणु के परिजनों और परिचितों के साथ बीतता है-"रेणु की लेखनी अद्वितीय है. उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए ग्राम्य जीवन पर प्रकाश डाला. साथ ही आचलिक गीतों को प्रमुखता से स्थापित किया." इयान जब औराही हिंगना आए थे तो जान -पहचान किसी से नहीं थी. लेकिन उन्हें अब इस बात की खुशी है कि पहली बार में ही उनके कई दोस्त बन गए-"रेणु की लेखनी के बारे में अंग्रेजी में काफी कम लिखा गया है. मैं उनकी लेखनी पर शोध कर रहा हूं. मैंने लगभग 60 फीसदी शोध कार्य पूरा कर लिया है."
हाल ही में इयान को टेक्सास विश्वविद्यालय ने लेक्चरर बनाया है और अब वे अमरीकी विश्वविद्यालय में भारतीय ग्राम्य जीवन पर छात्रों को पढ़ाना चाहते हैं. इयान को रेणुजी की पत्नी लतिका रेणु से लंबी बात करनी है...पहले वे पटना में रहती थीं अब यहीं रहने लगी हैं. उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं. लेकिन बोली में ठसक आज भी वही है. पूछती हैं, “क्या पूछना है, पूछिए? क्या जानना चाहते हैं रेणु जी के विषय में.. अब तो वह रहे नहीं, इसलिए क्या बताऊं. चले गये, तो चले गये. पटना में थी, तो ये लोग यहां ले आये, यहीं रहकर खुश हूं.”

लतिका जी के कमरे में रेणु और उनके मित्र भोला नाथ मंडल की तसवीर लगी है, जिसकी पूजा लतिका जी सुबह-शाम करती हैं. कहती हैं, “दोनों गजब के मित्र रहे हैं. इसीलिए दोनों की तसवीर को साथ-साथ रखा है.” बात के बीच में ही जीवानंद मंडल टपक पड़ते हैं-" रेणु बाबू को दोस्तों की कमी थी भला...दिल्ली से लेकर नेपाल तक..कोलकाता से लेकर मुंबई तक दोस्त ही दोस्त थे." जीवानंद ये बात जोड़ना नहीं भूलते कि आज अगर रेणु बाबू होते तो औराही हिंगना का रंग ही कुछ और होता. जीवानंद रेणु जी से जुड़ा एक और किस्सा सुनाते हैं-"तीसरी कसम तूफान मचा रहा था...रेणु बाबू कुछ फिल्मी दुनिया के दोस्तों के साथ देर रात धर्मतल्ला, कोलकाता के इलाके में अंग्रेजी शराब खोज रहे थे. उन्हें शराब की एक दुकान दिखी, जिसका मालिक दुकान का शटर गिरा चुका था और ताला लगा रहा था. रेणु बाबू ने जाकर उससे मनुहार की कि भाई दो-तीन बोतल दे दो. दुकानदार सनकी था कहा- दुकान बंद हो चुकी है, शराब नहीं मिलेगी. रेणु बाबू के मुंह से बरबरस निकल पड़ा- इस्सस थोड़ी देर पहले आ जाते तो..... दुकानदार ने चौंक कर रेणु बाबू को देखा. लंबे-लंबे घुंघराले बाल. उसने पूछा अरे आप रेणु हैं. रेणु बाबू चौंके और कहा- हां. दुकानदार खुशी से पागल हो गया. उसने झटपट दुकान खोली और रेणु के हाथों में शराब की कुछ बोतले थमाते हुए पूछा- तीसरी कसम के हीरो हीरामन से कितना भालो इस्स कहलवाया है आपने. रेणु बाबू कुछ नहीं बोले , बस हंसते रहे."
रेणु को याद कर अब भी हंसते हैं लोग, रोते हैं लोग. ब्रह्मदेव मंडल कहते हैं.."माटी का लाल था, नाम रौशन करके चला गया.जो लिखा सच लिखा, नया लिखा." ब्रह्मदेव मंडल की बातों में रेणु के साहित्य के टटकेपन का टीका मिल गया होगा. टटका यानी नया. लेकिन उनके जाने के बाद गांव में एक किस्म का बासीपन आ गया, यह बात वे लोग कबूलते हैं, जिन्होंने रेणु की जिंदादिली देखी है, हक के लिए संघर्ष देखा है और लोगों के लिए उन्हें लड़ते देखा है. बात सच है, औराही हिंगना की हालत अब भी दूसरे गांवों से अलग नहीं....फिर भी यहां के लोगों को इस बात का फख्र है कि यही वो जगह है, जहां फनीश्वरनाथ रेणु पैदा हुआ थे,अमीर-गरीब, अनपढ़-गंवार या फिर पढ़े-लिखे,सब के सब रेणु को उतना ही अपना मानते हैं जितना कि उनके बेटे पद्म पराग राय, अपराजित या फिर दक्षिणेश्वर. एक लेखक लोगों के दिलों में कैसे सालों बाद जिंदा रहता है...यह पढ़ने या सुनने की बात नहीं महसूस करने की बात है..और इसके लिए आपको औराही-हिंगना आना होगा..और फिर आपकी पीठ में भी होगी गुदगुदी.

…और अब गप्प में गिरह
कई महीने बीत गए हैं, मुझे औराही हिंगना से आए. इसी बीच रेणु जी के बड़े बेटे फारबिसगंज से विधायक हो गए हैं. लतिका रेणु भी नहीं रहीं अब . हो सकता है औराही हिंगना में और भी बहुत कुछ बदला हो...लेकिन वहां से लौटने के बाद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि भले ही गांव बदल जाये,वक्त बदल जाये, हालात बदल जाएं,लेकिन एक चीज कभी नहीं बदलनेवाली है और वह है उस गांव और उस इलाके के परिवेश में फनीश्वर नाथ रेणु की मौजूदगी. लोग पान खाते रहेंगे,होठ लाल होता रहेगा,मलमल के कुर्ते पर छींटे भी गिरते रहेंगे...घोतन जैसे न जाने कितने लोगों का मिजाज सवा चालीस होता रहेगा.
देव प्रकाश चौधरी, औराही हिंगना से लौटकर