Wednesday, October 6, 2010

सिंधी ढाबे में हिंदी का अनशन

वे दुखी थे और इसकी सबसे बड़ी पहचान ये थी कि दप्तर में वे एक ऐसा कोना तलाश कर रहे थे, जहां अपने चेहरे को लटका कर बैठ सकें। दप्तर आए थे तो चेहरा अपने वाजिव आकार में था, लेकिन कुछ पल बीते नहीं थे कि चेहरा खुद-ब-खुद लटकने लगा और वे खुद कोने की तलाश में भटकने लगे। तब तक सहकेबनीय शख्स ने एक दूसरे को बताया, दूसरे ने तीसरे को और इस तरह पूरे दफ्तर में ये बात फैल गई कि दिल्ली में कॉमनवेल्थ के दौरान हो रही हिंदी की दुर्दशा ने उन्हें दुखी कर दिया है।
जब पूरा देश हिंदी सप्ताह मना रहा हो । तनी हुई साहित्यिक रीढ़ नरम तकियों और मुलायम गद्दों का सहारा ले चुकी हो, तब महानगर में दशकों के अनुभव वाला हिंदीमुखी एक जीव कोने की तलाश में भटक रहा था। हद तो तब हो गई, जब उन्हें दफ्तर में कोई ऐसा कोना भी न मिल पाया, जहां वे कुछ पल बैठकर दशकों की हिंदी सेवा के बाद की इस अकस्मात उपेक्षा को देख, हिंदी सेवा के प्रोविडेंट फंड पर कुछ चिंतन कर पाते। क्षुब्ध होकर वे पास के सिंधी ढाबे में आ गए। गरम-गरम रोटी की सौंधी गंध,बेयरे की चिल्लपों और बरतनों की गिरती-संभलती आवाजों के बीच उनके दिल से ये आवाज उठी कि अब दिल्ली की हिंदी दिल्ली को मुबारक,अपनी हिंदी को उपर उठाना होगा। चाय आते ही, वे फ्लैशबैक में चले गए। तब क्या दिन थे। पूरे कस्बे में वे हिंदी और दिल्ली को एक साथ हनुमान की तरह कंधे पर उठाए घूमते थे। दिल्ली के महान हिंदीसेवी और साहित्यकार दुर्दशा प्रसाद ने एक चिट्ठी क्या लिख दी, महीनों आस-पास के कई कस्बों और छोटे शहरों में ये बात गूंजती रही कि हिंदी के दुर्दशा प्रसाद ने रामगढ़ के अनोखेलाल को चिट्ठी में भाई साहब लिखा है।
हिंदी सप्ताह शुरु नहीं होता कि आकाशवाणी और बैंकों से आमंत्रण आ जाता। भाई साहब का बुखार चढ़ता रहा। फिर प्रिय भाई, बन्धु, दोस्त और आदरणीय जैसे संबोधन भी रास्ते में आए, लेकिन तब तक वे दिल्ली आ गए थे। यहां आकर उन्हें पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि आखिर हर शहर में एक दिल्ली दरवाजा क्यों होता है? हर शहर से एक ट्रेन हर रोज सैकड़ों लोगों को लाकर दिल्ली में क्यों पटक देती है? तभी उन्होंने ये बुद्ध वचन अपने साथ आए एक छोटेलाल को कहा था कि हिंदीजीवी को दिल्लीमुखी होना बहुत जरूरी है। पालना कहीं झूले, लेकिन पलंग तो दिल्ली ही देती है।
अपने छोटे से कस्बे में हिंदी को ऊपर उठाने के लिए जो झोला लटकाया था, दिल्ली में उस झोले का वजन बढ़ता गया। हिंदी के अखवार, रेडियो, चैनल्स, बैंक, बीमा कंपनियां, सरकारी और गैर सरकारी दुकानों में हिंदी के नाप पर होनेवाले कीर्तनों में अनोखेलाल की तैयार की गई धुनें खूब बजती रही। हर सम्मान के साथ मिलनेवाले शॉल को वे अपने कस्बे के छोटेलाल जैसे छोटे-छोटे दोस्तों को भेजते रहे, जो अनोखेलाल की तरह हिंदी के विकास की कोई नई धुन तो नहीं बना पाए थे, लेकिन उनका पुराना रिकार्ड ही काफी था। शॉल भेजने के पीछे अनोखेलाल की एक सोच ये भी थी कि कस्बे में हिंदी के विकास का जो अलख जगाया था, उसकी गर्मी बनी रहे।
लेकिन इस बार के हिंदी सप्ताह ने अनोखेलाल को खुद अपनी सोच पर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। न किसी बैंक से, न वीमा कंपनियों से, न पुलिस से और न ही पब्लिक से कहीं से कोई न्यौता नहीं। "ऐसा कैसे चलेगा? " चाय की अंतिम घूंट ने मुंह का स्वाद और बिगाड़ दिया। लेकिन तभी उनके मन में एक जोरदार आईडिया आया और वे पास में ही एक दैनिक अखवार में अपने दोस्त से मिलने चले गए। दूसरे दिन लोगों ने ये खबर पढ़ी कि अनोखेलाल सरकारी दफ्तरों में हिंदी की दुर्दशा पर पांच दिन के अनशन पर बैठने जा रहे हैं। खबर अनोखेलाल ने भी पढ़ी और चेहरे पर मुस्कान तैर गई। शायद वो मुस्कान कह रही थी, दिल्ली की हिंदी दिल्ली को मुबारक, अब अपनी हिंदी की जय-जय ।
----देव प्रकाश चौधरी

Tuesday, September 21, 2010

मेरी, तेरी उसकी जेब

क्या आपको नहीं लगता है कि गले मिलकर जेब काट लेने की परंपरा कितनी पुरानी है, इस पर अब विस्तृत शोध की जरूरत है? मेरे एक दोस्त को ऐसा लगता है। उनका मानना है कि अब वक्त आ गया है और सारे देश को ये पता चले कि झालावाड़ जिले के भवानीमंडी में कुछ लोगों ने नेताओं की पोशाक पहनकर, नेताओं से गले मिलते हुए, नेताओं की जेब काट लेने का जो स्टाइल चलाया , उसका आईडिया कहां से आया था। यूं तो अपने देश में गले मिलने की परंपरा काफी पुरानी है। भऱत से गले मिले थे राम, लेकिन क्या तब जेब कटने जैसी ऐतिहासिक घटना हुई थी?महाभारत में भी राजाओं के गले मिलने के कई प्रसंग हैं, लेकिन जेब कटने की बात अगर सामने आती तो बी आर चोपड़ा का महाभारत कुछ और होता। मामा शकुनी महामंत्री विदुर से गले मिलते और चुपके से उनका बटुआ खींच लेते या फिर राजा विराट का राजा द्रुपद से गले मिलने का सीन होता और विराट नरेश कंगाल होकर घर पहुंचते। शायद ये रामायण काल या महाभारत काल में नहीं हो पाया था, लेकिन क्रांति करने वाले बीते कल की ओर कहां देखते हैं? झालावाड़ जिले के भवानीमंडी के जेबकतरों ने वो कर दिखाया,जो मुंबईया फिल्मों की फैक्ट्री में काम करने वाले बड़े-बड़े पटकथा लेखकों को भी ख्याल नहीं आया।
वो जेबकतरे दल बदलना जानते थे। रैली किसी भी पार्टी की हो, उसी पार्टी का झंडा लेकर दल-बल के साथ नेताओं की वेश-भूषा में पहुंचते थे और बड़े-बड़े नेताओं से गले मिलते हुए उनकी जेब काट लेते थे। उन जेबकतरों ने पहले-पहल तो झालावाड़ में ही प्रैक्टिस की, फिर कुछ दिनों के बाद वे अखिल भारतीय हो गए।
क़ालेज में पढ़ाने वाले मेरे वे दोस्त चाहते हैं कि जेबकतरों के इस नए स्टाइल पर विश्वविद्यालयों में शोध हो। उनका मानना है कि देश में जेबों की संख्या काफी है और कुछ लोग अपने-अपने जेब में देश लेकर घूमते हैं, इसलिए इस बात पर विश्वविद्यालयों के होनहार रिसर्च स्कॉलरों को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इस शोध के बारिक पहलुओं पर अपने महत्वपूर्ण उदगार व्यक्त किए-"इस शोध के बाद ये बात साफ हो जाएगी कि नेताओं की जेब और आम आदमी की जेब में क्या-क्या समानताएं और क्या-क्या असमानताएं हैं। फिर इस शोध के बाद पता चलेगा कि जानवरों की रूचि जेब में क्यों नहीं हैं? जेब कैसे बनती है? जेब कैसे बढ़ती है। एक जेब में कैसे समा जाता है पूरा का पूरा देश? अंदर की आस्तीन में छिपी जेबों का सौंदयशास्त्र क्या है? जेबकतरे कैसी जेबें पसंद करते हैं? जेबों में सिक्के रखने चाहिए या रुपए? आखिर कोई क्यों काटता है किसी की जेब? जेब कट जाए तो कैसे मातम मनाएं? आदि। निमंत्रण देकर जेब काटने की शैली को वे प्राथमिकता देना चाहते थे क्योंकि झालावाड़ के वे जेबकतरे भी जिनकी जेब कटती थी, उनको वे फूलों का गुलदस्ता भेंट करना नहीं भूलते थे।
अपनी बातों में बढ़ती रूची देखकर वे इस शोध का प्रैक्टिकल पहलू भी समझाने लगे-" इससे जेब काटने और जेब बचाने के नए-नए पैंतरे सामने आएंगे। जेबों की दुनिया का विस्तार होगा। जेबों से लोगों को रोजगार मिलेगा। जेबों की कई नई किस्में भी सामने आएंगी और उसका मतलब समझ में आएगा, जैसे मौसमी जेब, मरियल जेब, मतलबी जेब,मनमानी जेब, खास जेब, आम जेब,अमर जेब,पारदर्शी जेब, पारंपरिक जेब,जालंधरी जेब,जुगल जेब, जुगत की जेब,जय जेब,अजेय जेब आदि।"
ऐसा लगा मानो वे जेब काटने के मामले में बकायदा आंदोलन चलाने के मूड में आ गए हों-" देश में जेब काफी है और जेब काटने की योग्यता वाले कई लोग जो आज अफसर, नेता या बुद्दिजीवी बने फिरते हैं, यदि किस्मत साथ देती तो वे जेब काटते और ऐसी काटते कि किसी को कानों-कान खबर नहीं लगती। ऐसे लोगों को अगर सही तरीके से हेंडल किया जाए और मौका दिया जाए तो देश का अर्थशास्त्र मजबूत हो सकता है। अमेरिका से मिले, उसकी जेब खाली। ब्रिटेन से मिले,उसकी जेब का पत्ता साफ।" बात जम रही थी और मेरे अलावा भी कई श्रोता उसकी तरफ टकटकी लगाए खड़े थे।
वे बोले कि मैं आज ही झालवाड़ की तरफ निकल रहा हूं। हवालात जाकर उन जेबकतरों से मिलूंगा और पूछूंगा कि नेताओं के आने का प्रोग्राम वो चैनल से पता करते थे या अखवार से। अब तक किन बड़े-बड़े नेताओं की जेब उन्होंने और उनकी पूरी टीम ने काटी, इस पर भी उनको जानकारी चाहिए थी। उनके मूड को देखकर लगा कि अगर उन्हें मौका दिया जाए तो वे जेब काटने को जिंदगी जीने की कला साबित कर देंगे और कॉलेजों में बकायदा इसकी पढ़ाई शुरु हो जाएगी। हम लोग कुछ बोलना चाहते थे ,लेकिन वे रुके नहीं। गति को देखकर लगा कि अब वे झालावाड़ पहुंचकर मेरी, तेरी उसकी जेब का हिसाब लेकर ही दम लेंगे।
-देव प्रकाश चौधरी
अमर उजाला में 22.09.10 को तमाशा कॉलम में प्रकाशित

Friday, June 25, 2010

अंधेरी रात में इंडिया गेट पर

उस तरबूज से भी बड़ी खामोशी हमारे बीच खड़ी थी और अब हम दोनों बैठ चुके थे। दूरी वही थी। लोकेशन भी वही। हम चुप थे। मौन ने न जाने इस देश में कितनों को देवता बनाया। पढ़े लिखे एक विद्वान टाईप के महानुभाव को पार्कों में, सड़कों पर या फिर किसी सभा में मैंने दसियों बार मौन बैठे देखा था।
वह मेरे सामने खड़ी थी और मैं उसके सामने। मेरे और उसके बीच खड़ी थी खामोशी। दूर पर खड़ा था इंडिया गेट, जिसने सामान्य बातचीत में भी ब्रेक डांस करने वालों को न जाने कितनी बार खामोश रहना सिखाया होगा और कड़कती धूप में खड़ा भी किया होगा। पर, हम दोनों उस शाम खामोश खड़े रहने के लिए इंडिया गेट नहीं पहुंचे थे। बगल में चारों तरफ सड़कों पर प्रगति की रफ्तार थी। नीचे हरी घास पर क्षण भर बैठ लेने का सुख था और उपर बेमतलब सुहावना होने का निमंत्रण देता आसमान। लेकिन हरी घास का सुख, सुहवना होने के आमंत्रण और प्रगति की रफ्तार के वावजूद खामोशी डट कर खड़ी थी।
चुप रहकर प्रतीक्षा करने की सीख तीसरी क्लास में मास्टरसाहब ने डंडे की चोट पर बताई थी। कुछ बड़े हुए तो हाई स्कूल के टीचर ने सबके सामने कहा था, सिंदुर पुतवाना है तो पत्थर बनना सीखो। सचमुच पत्थर की तरह खड़े थे हम। और ये सब उस इंडिया गेट के लॉन पर हो रहा था, जहां दिल्ली में सबसे पहले नया साल उतरता है, या गिरता है ,जहां कई जोड़ों ने वक्त काटने का सबसे मौलिक,अप्रकाशित और अप्रसारित आईडिया खोज निकाला है, जहां आईसक्रीम वाले किसी को खामोश खड़े नहीं रहने देते और जहां एक साथ सैकड़ों आंखों से निकली ज्योति पल भर में ही किसी जोड़े का एक्सरे कर डालते हैं, वहां हम दोनों के बीच पसरी थी खामोशी। ऐसी खामोशी, जिसे पहली बार मैंने एक परिचित के अंतिम संस्कार में महसूस किया था और फिर कई सालों बाद दिल्ली में एक महान कवि की एक महान कविता के पाठ के बाद। ऐसी खामोशी तीसरी बार मेरी जिंदगी में आई थी।
मेरे साथ काम करने वाले एक पत्रकार जिनके चेहरे पर इस साल से वानप्रस्थी छाप दिखने लगी है ,वे अक्सर दफ्तर में मचे चिल्लपों पर कहते हैं कि मौन सदा मंगलकारक है और बोलना दंगलारक। कॉलेज में मेरे एक टीचर थे जिन्हें मौन का महागुरू कहें, तो शायद उन्हें छोटा संबोधन लगेगा। फिजिक्स पढ़ाते थे। रेडियो की बिगड़ी फ्रिक्वेंसी सुधार लेना आसान था लेकिन उनकी चुप्पी तोड़ना बेहद कठिन। दो साल में एक ही बार बोले थे, कि जब मैं मैगनैट बोलूं तो समझो कि कम से कम इतना बड़ा चुंबक है। उन्होंने हाथ का जो ईशारा किया था, उसमें कम से कम दो किलो का तरबूज तो आ ही जाएगा।
उस तरबूज से भी बड़ी खामोशी हमारे बीच खड़ी थी और अब हम दोनों बैठ चुके थे। दूरी वही थी। लोकेशन भी वही। हम चुप थे। मौन ने न जाने इस देश में कितनों को देवता बनाया। पढ़े लिखे एक विद्वान टाईप के महानुभाव को पार्कों में, सड़कों पर या फिर किसी सभा में मैंने दसियों बार मौन बैठे देखा था। उस मौन का महत्व मुझे समझ में आया तब, जब एक गोष्ठी में वे पहली बार बोले। सबको बोलने दिया और फिर बोले तो बोलते चले गए। साहित्य को लेकर उठे थे शहर के गटर पर आकर बैठे। कवि, समाजवाद, महंगाई,प्याज,सड़क और गंदे नाले तक को समेट लिया। खामोशी की खुशबू फैलाकर रौब का डंडा चलाने का ये आईडिया मुझे बड़ा पसंद आया था, लेकिन मौका नहीं मिला। बचपन से ही हम बक-बक करनेवालों की उस बेशर्म टोली में शरीक माने जाते रहे, जिसके लिए कोई सुनने वाला न भी हो तो किसी बिजली के खंभे का सहारा ही काफी है।
उस शाम हमारे पास बिजली के खंभे का सहारा भी नहीं था। हम सचमुच मौन थे और दिल्ली के उस इंडियागेट पर थे, जिसका शोर जगत प्रसिद्ध है। पहली बार मुझे लगा कि किसी लड़की के सामने चुप रहना भी, लड़की पर गौर करने का एक रास्ता है। लेकिन गौर करने की ये सीमा भी बहुत देर पहले खत्म हो चुकी थी। अचानक चमत्कार हुआ और उसके चेहरे पर क्लोजअप मुस्कान नजर आई। वह बोली। पहली बार बोली-''मुझे घऱ जाना होगा। मेरे अंकल आने वाले हैं। कनाडा में रहते हैं,इनआरआई हैं। कई दिनों से हमलोग कर रहे हैं उनका इंतजार।" एनआरआई फूफा के इंतजार की खबर से लंबी खामोशी को गूंथकर वह मेरे सामने ही दिल्ली में प्रगति की रफ्तार की तरह चली गई। अब मैं अकेला था और सोच रहा था कि उस लड़की के दिल में एनआरआई के आने की उम्मीद के अलावा भी कोई उम्मीद है या नहीं। मुझे लगने लगा कि हर खामोशी तोड़ने के लिए एक अदद एनआरआई का आना जरूरी है। बेहद जरूरी।
-देव प्रकाश चौधरी
(अमर उजाला में 24 जून,2010 को तमाशा कॉलम में प्रकाशित)

Tuesday, June 15, 2010

एक ब्लॉगर की प्रार्थना

हे शिव! तुम तो सब जानते हो तो फिर क्या कहने आया हूं, ये भी जान ही रहे होगे।
हे रूद्र ! ऐसी ताकत दो कि मैं दूसरे ब्लॉगर को पछाड़ सकूं,टिप्पणी दिलवाओ, पसंद पर क्लीक करवाओ, अखबारों में चर्चे हो, इसका भी जुगाड़ कर, सात सोमवार का व्रत करूंगा ।
हे महेश!...मेरा मामला अक्सर ब्लॉगवाणी पर आकर अटक जाता है, कुछ ऐसी तरकीब भिड़ा कि वहां लिस्ट में मेरा ही मेरा नाम हो ।


हे कैलाश के वासी!..तुम तो जानते हो कि मैंने अपने ब्लॉग पर ट्रैफिक सिग्नल भी लगा रखा है, लेकिन मेरा ब्लॉग सिर्फ दिल्ली-दिल्ली में ही क्लीक होता है, कुछ करो प्रभो, गांजा-भंग चरस-अफीम जो चाहिए चढ़ाउंगा। मेरे ब्लॉग को हिट करा दे, फिर कैलाश पर जाकर विश्राम करना, रास्ते का सारा इंतजाम मेरा ।
हे महामृत्युजय !...तुम तो जानते हो कि ब्लॉगवाणी में अब पसंद पर एक बार ही क्लीक कर सकते हैं, कुछ लोग कई ई-मेल आईडी बनाकर पसंद पर क्लीक करते हैं, लेकिन तुम मेरे कंप्यूटर को ऐसी शक्ति दो कि बैठे- बैठे दे दना-दन...समझ गए न..?
हे अवधूत! कुछ दिन पहले ब्लॉगर प्रसाद को अपना गुरु बनाया था, सोचा था महाजन येन गत पन्था...लेकिन तुम तो जानते ही हो कि महाजन भी अब दूसरी राह पकड़ने लगे हैं । टीवी के एक रिएलिटी शो में देखा था कि महाजन स्वीमिंग पुल की तरफ जा रहे हैं । मैं तैरना नहीं जानता प्रभो, इसलिए हे असली बिग बॉस...ऐसी ताकत दो कि पल भर में ब्लॉगवाणी रूपी भवसागर को पार कर पाऊं।ऐसा रास्ता दिखा कि ब्लागर्स की दुनिया में सिर्फ मैं ही मैं रहूं,बाकी का क्या होगा, ये भी तुम सोचो..।
हे नागधर ! तू कुछ विष मुझे भी दे,मैं देख रहा हूं कि कुछ विषैले ब्लॉगर्स भी ब्लागवाणी पर भटकते हैं और लोग उनसे डरते भी हैं।
हे औंकार ! मैं टीवी में काम जरूर करता हूं प्रभो, पर स्क्रीन पर मेरा चेहरा कभी दिखता नहीं, इसलिए ब्लॉग की दुनिया में भी मेरा कोई गुट नहीं बना । तू ब्लॉग के महंतों को सपने में डरा । उसे कह कि महंती की कुर्सी छोड़े । मेरा कुर्सी मोह जाग गया है भगवन ।
हे भूतनाथ ! तू तो दुनिया की सारी गालियां जानता है । एक ब्लॉगर दूसरे को जमकर गालियां देते हैं,इस मामले में मैं बहुत कमजोर हूं । मुझे शक्ति दे प्रभो ।
हे करूणानिधान !...मेरी समस्या का निदान कर...कुछ वक्त चाहिए तो ले ले...लेकिन इतना मत लेना जितना कि किसी नए कवि की किताबों की भूमिका लिखने में लेते हैं हिंदी के महान कवि । जो भी कर जल्दी कर प्रभो,क्योंकि मामला फौजदारी का है।

कहां गई हंसी?

पहले हंसी दिखाई देती थी, फिर हंसी सुनाई पड़ने लगी...तब हंसी बाजार में खिलखिलाकर भाग रही थी और लोग उसके पीछे भाग रहे थे...लेकिन ये भागमभाग भी अब थम चुकी है...रिकार्ड घिस गए हैं...खजाना खाली है...और अब टीवी की हंसी हंसी बाजार के उसी नुक्कड़ पर खड़ी है, जहां दाग अच्छे लगते हैं, बीमार होने का मजा ही कुछ और है और जहां सब कुछ ठंडा-ठंडा कूल कूल है।


इंसान पहली बार कब हंसा होगा? हंसी खुद पर आई होगी या दूसरों पर, यह सदियों से बहस का विषय है। लेकिन कुछ महीने पहले तक चैनलों में हंसी को लेकर जो घमासान और हाहाकार मचा था, उसका नतीजा अब सामने है..। हंसी अब सहमी हुई सी इस कदर खड़ी है मानो डाइटिंग के दौर से गुजर रही हो।
पहले टीवी ऑन करते ही पता चल जाता था कि हंसी का दौर जारी है। हर चैनल के पास थी हंसी की खुराक। कहीं हंसी के शहंशाह तो कहीं बादशाह। कहीं हंसी के अवतार तो कहीं भगवान। कोई हंसा कर एहसान कर रहा है तो कोई कह रहा है राज मैं ही करूंगा।
हंसी के गोलगप्पे, हंसी के छींटे, हंसी की बौछार,हंसी की फुलझड़ी, हंसी की फुहार, हंसी की मार,हंसी की दहाड़, हंसी के आर-पार,होश उड़ा देने वाली हंसी, सन्न कर देने वाली हंसी, रूलाने वाली हंसी। बताइये, अब क्या चाहिए? इतनी हंसी और इतने प्रकार की हंसी कभी किसी ने देखी थी।
हर किसी की जिंदगी से जुड़ चुके थे-राजू श्रीवास्तव, भगवंत मान, सुनील पाल, एहसान कुरैशी,प्रताप फौजदार और भी कई बेनाम -अनाम सुरमा...लेकिन ये जोड़ फेविकोल का जोड़ साबित नहीं हुआ....। सबको लग रहा था कि शातिर कातिलों, साजिश रचने वाली सासों, नकाब ओढ़नेवाले गुनाहगारों,अपहरण की आंटियों, जिस्मफरोशी के टोकनों और बेतूकी हरकतें करने वाले बाबाओं को छोड़कर खबरिया चैनल अचानक हंसने-हंसाने पर क्यों उतारू हो गए ? तो इसका सीधा सा जवाब यही है कि आज हंसी बाजार के उसी नुक्कड़ पर खड़ी थी, जहां दाग अच्छे लगते हैं, बीमार होने का मजा ही कुछ और है और जहां सब कुछ ठंडा-ठंडा कूल कूल है।
पहले हंसी दिखाई देती थी, फिर हंसी सुनाई पड़ने लगी...तब हंसी बाजार में खिलखिलाकर भाग रही थी और लोग उसके पीछे भाग रहे थे ।
टीवी पर इसके पहले भी हंसी के कैर्यक्रम थे, लेकिन लाफ्टर चैलेंज के विजेताओं के साथ-साथ घायल पराजितों की एक ऐसी जमात खड़ी हो गई है...जो आपको बेवजह हंसाना चाहती है। हंसाते तो चाचा चौधरी भी थे। मुल्ला नसीरूद्दीन ने भी हंसाया है लोगों को, लेकिन वो जमाना कोई और था। तब शायद किसी को अपनी हंसी और हंसाने की कला पर इतना गुमान नहीं था कि कह सके-हंसोगे तो फंसोगे। तब इतनी हंसी की ऐसी की तैसी भी नहीं हुई थी।
लोग हंसते रहे हैं। लोग हंसते रहेंगे। लेकिन हंसी कभी इतनी नहीं बिकी, जितनी कि कुछ साल पहले तक बिकी..।
टीवी के इतिहास में शायद हंसी पहली बार टीआरपी के उस दौड़ में शामिल हो गई है,जिस दौड़ में कातिल की चाल, जिन्नात की पुकार, भूत की पसंद और पुजारी का पाखंड, सब बड़ी तेजी से भाग रहे थे...और सबसे ज्यादा तेज हंसी ने भागना शुरु किया। लेकिन इस भागमभाग के बाद हालात ये हो गए कति सन्नाटे को चीरती सनसनी नहीं, सन्नाटे को चीरती हंसी ने सबको सन्न कर दिया..।
देव प्रकाश चौधरी

Tuesday, March 30, 2010

ब्लॉगर प्रसाद का वजन बढ़ रहा है भाई!

बुजुर्गों ने कहा था बात में वजन पैदा करो। ऐसी पोस्ट लिखो कि बात निकले तो दूर तक जाए। ब्लॉगर प्रसाद ने कोशिश तो बहुत की, लेकिन बात में वजन बढ़ने की बजाय शरीर का वजन बढ़ने लगा। चार साल पहले जब ब्लॉग शुरु किया था तो 53 पर था। चार साल बाद 87 किलो का शरीर लेकर इधर से उधर डोलने वाला ब्लॉगर प्रसाद समझ नहीं पा रहा है कि बात का वजन जिस्म में कैसे प्रवेश कर रहा है? पहली बार उसे इस बात का अहसास हुआ है कि अब तक जितनी बातें उसने कही, उसमें तो वजन ही नहीं था...। उसके लिखे, कहे, बतियाये और गलियाये हर शब्दों का वजन कभी ग्राम तो कभी ओंस, कभी छटांक तो कभी पाउंड बनकर उसके शरीर में प्रवेश कर रहा था। वजन रहित शब्द, वजन रहित पोस्ट और वजन रहित विषय, माथा चकरा गया ब्लॉगर प्रसाद का। ये वजन भी एक किस्म का बकवास है, पहली बार सोचा उसने....लेकिन अब भी तो उसके जिस्म का वजन बढ़ रहा था। जबकि अब बात ब्लॉग पर ही नहीं साइट और अखबार के पन्नों पर हो रही थी..। एक से एक बहस...एक से एक विषय और एक से एक टिप्पणी करनेवाले...तो क्या अब भी उसकी बातों का वजन शिफ्ट हो रहा था?
पाठक गाली देते होंगे, उसने मन ही मन में सोचा। वैसे भी जिस अखबार में वो लिखता था, उसका वजन इतना कम था कि दूसरी मंजिल से उपर रहनेवालों तक हॉकर फेंक ही नहीं पाता था। बात में वजन नहीं अखबार इतना हल्का कि 10 फीट से उपर ही न जाए...। ब्लॉगर प्रसाद को खुद पर झुंझलाहट होने लगी...। तभी उसे याद आया अखबार न सही, हाथ में एक साईट तो है। लेकिन साईट में भी शब्द तो हल्के ही होंगे, सोचते ही उसके तेवर ठंडे पड़ गए...। तो क्या करें? सुबह की चाय पर सोचना शुरु किया...दोपहर के लंच तक कोई हल नहीं निकला...। सवाल यही कि शरीर का वजन कम हो तो बात में वजन पैदा हो...। जिम...एक्सरसाईज...मार्निंगवॉक...ये सब आईडिया आया था...लेकिन क्या गारंटी कि शरीर हल्का होते ही शब्द भारी हो जाएंगे। कहीं ऐसा न हो कि शरीर भी हल्का...और बात भी हल्की? ऐसे में तो साहित्यिक..गैर साहित्यिक विवाद का एक झौंका भऱ उसे उड़ा ले जाएगा...।
तो फिर क्या करें, पहली बार महानगर में रहते हुए ब्लॉगर प्रसाद ने खुद को असहाय पाया...।
बहुत सोचा, बहुतों से ज्ञान लिया...और आखिर उसे मिल गया एक फार्मूला....-" शऱीर का वजन बढ़ रहा है तो बढ़ने तो...लेकिन खुद मत लिखो..दूसरों को लिखने दो...और उस लिखे पर मुस्कुराओ...झगड़ा कराओ..गाली दिलवाओ...जरूरत पड़े तो कींचड़ उछालो...। तभी बात में वजन न भी हो तो महंती रहेगी बरकरार...।"
ब्लॉगर प्रसाद ने चैन की सांस ली...अब उसे इस बात की फिक्र नहीं थी कि उसके बात में वजन नहीं है। गर्व था इस बात पर कि उसके साईट पर...उसके ब्लॉग पर गालियां तो थीं...।
इसके साथ ही ब्लॉगर प्रसाद ने अपने वजन को खुला छोड़ दिया है....।
-देव प्रकाश चौधरी

Monday, March 29, 2010

छोटा भाई जानता है,असली संजीबनी बुटी किस पहाड़ पर है?

राजनीति में एक होता है बड़ा भाई।
बड़ा भाई अक्सर चुप रहता है।
वो कभी-कभी बोलता है। हमेशा आंख बंद कर बैठा रहता है।
बड़ा भाई सोच-समझकर बोलता है।
मीठी बातें बोलता है, कभी-कभी कड़ुवी भी, मगर कम बोलता है।
राजनीति में दूसरा होता है छोटा भाई। छोटा भाई हमेशा बोलता है। विषय कोई भी हो, बिना बोले रहता नहीं।
कभी चुप नहीं बैठता। छोटा भाई सिनेमा देखता है। छोटा भाई ठुमके लगाता है। छोटा भाई तलवार रखता है। छोटा भाई अपनी मूंछ की शान रखने के लिए जान देने की बात करता है। लेकिन राजनीति के बड़े भाई को मूंछ नहीं होती, न जान लेना है न देना है।
लेकिन छोटे भाई की आंखें भी बंद नहीं होती।
दो आंखों से हजारों लोगों के सपने देखता है छोटा भाई...।
राजनीति के अलावा फिल्मों में भी होता है एक बड़ा भाई।
वो बेहद बड़ा होता है। उसके सामने सब छोटे लगते हैं।
वो तीर्थयात्रा पर जाता है। उसके साथ छोटा भाई भी जाता है।
वो दुआएं मांगता है। छोटा भाई दुनिया को उन दुआओं के बारे में बताता है।
बात यहीं खत्म नहीं होती...क्योंकि फिल्मों में बड़ी भाभी भी होती है।
वो राजनीति के छोटे भाई के कहने पर फिल्में छोड़ देती है।
वो राजनीति में आ जाती है।
छोटा भाई कहता राजनीति से बेहतर एकिटिंग की कोई जगह नहीं।
भाभी मान जाती है।
राजनीति का बड़ा भाई खुश होता है। छोटा भाई गदगद।
धीरे-धीरे परिवार बनता है।
धीरे-धीरे माहौल बनता है।
धीरे धीरे छोटा भाई बड़ा होने लगता है।
अब वो और बोलने लगता है।
उसे शेरो-शायरी की लत भी लग जाती है।
वो दुश्मन को बातों से मारता है।
लेकिन छोटे भाई के उत्पात पर सवाल उठते हैं।
राजनीति का बड़ा भाई चुप रहता है। छोटे भाई को गालियां पड़ती हैं। बड़ा भाई आंख बंद कर लेता है। छोटा भाई खीझकर घऱ छोड़ने की धमकी देता है।
बड़ा भाई खर्राटे भरने लगता है।
धीरे-धीरे छोटा भाई बड़े भाई से अलग हो जाता है।
धीरे-धीरे बड़ा भाई छोटे भाई से अलग हो जाता है।
फिल्मी भाभी चुप रहती है। वो राजनीतिक झगड़े को एक्टिंग से ज्यादा कुछ नहीं समझती ।
छोटा भाई पुकारता है भाभी नहीं बोलती।
छोटा भाई रिश्ते की दुहाई देता है...भाभी गुमसुम रहती है।
धीरे-धीरे परिवार टूटता है....धीरे-धीरे छोटा भाई टूटता है।
वो ढूंढता है सहारा। छोटे भाई को चाहिए राजनीतिक संजीबनी।
वो निकल पड़ा है तलाश में।
उसे पता है राजनीति के किस पहाड़ पर सबसे उत्तम कोटि की संजीबनी बसती है।
छोटे भाई को मिलेगी संजीबनी...तो फिर बनेगा कोई बड़ा भाई।
--देव प्रकाश चौधरी