Friday, June 25, 2010

अंधेरी रात में इंडिया गेट पर

उस तरबूज से भी बड़ी खामोशी हमारे बीच खड़ी थी और अब हम दोनों बैठ चुके थे। दूरी वही थी। लोकेशन भी वही। हम चुप थे। मौन ने न जाने इस देश में कितनों को देवता बनाया। पढ़े लिखे एक विद्वान टाईप के महानुभाव को पार्कों में, सड़कों पर या फिर किसी सभा में मैंने दसियों बार मौन बैठे देखा था।
वह मेरे सामने खड़ी थी और मैं उसके सामने। मेरे और उसके बीच खड़ी थी खामोशी। दूर पर खड़ा था इंडिया गेट, जिसने सामान्य बातचीत में भी ब्रेक डांस करने वालों को न जाने कितनी बार खामोश रहना सिखाया होगा और कड़कती धूप में खड़ा भी किया होगा। पर, हम दोनों उस शाम खामोश खड़े रहने के लिए इंडिया गेट नहीं पहुंचे थे। बगल में चारों तरफ सड़कों पर प्रगति की रफ्तार थी। नीचे हरी घास पर क्षण भर बैठ लेने का सुख था और उपर बेमतलब सुहावना होने का निमंत्रण देता आसमान। लेकिन हरी घास का सुख, सुहवना होने के आमंत्रण और प्रगति की रफ्तार के वावजूद खामोशी डट कर खड़ी थी।
चुप रहकर प्रतीक्षा करने की सीख तीसरी क्लास में मास्टरसाहब ने डंडे की चोट पर बताई थी। कुछ बड़े हुए तो हाई स्कूल के टीचर ने सबके सामने कहा था, सिंदुर पुतवाना है तो पत्थर बनना सीखो। सचमुच पत्थर की तरह खड़े थे हम। और ये सब उस इंडिया गेट के लॉन पर हो रहा था, जहां दिल्ली में सबसे पहले नया साल उतरता है, या गिरता है ,जहां कई जोड़ों ने वक्त काटने का सबसे मौलिक,अप्रकाशित और अप्रसारित आईडिया खोज निकाला है, जहां आईसक्रीम वाले किसी को खामोश खड़े नहीं रहने देते और जहां एक साथ सैकड़ों आंखों से निकली ज्योति पल भर में ही किसी जोड़े का एक्सरे कर डालते हैं, वहां हम दोनों के बीच पसरी थी खामोशी। ऐसी खामोशी, जिसे पहली बार मैंने एक परिचित के अंतिम संस्कार में महसूस किया था और फिर कई सालों बाद दिल्ली में एक महान कवि की एक महान कविता के पाठ के बाद। ऐसी खामोशी तीसरी बार मेरी जिंदगी में आई थी।
मेरे साथ काम करने वाले एक पत्रकार जिनके चेहरे पर इस साल से वानप्रस्थी छाप दिखने लगी है ,वे अक्सर दफ्तर में मचे चिल्लपों पर कहते हैं कि मौन सदा मंगलकारक है और बोलना दंगलारक। कॉलेज में मेरे एक टीचर थे जिन्हें मौन का महागुरू कहें, तो शायद उन्हें छोटा संबोधन लगेगा। फिजिक्स पढ़ाते थे। रेडियो की बिगड़ी फ्रिक्वेंसी सुधार लेना आसान था लेकिन उनकी चुप्पी तोड़ना बेहद कठिन। दो साल में एक ही बार बोले थे, कि जब मैं मैगनैट बोलूं तो समझो कि कम से कम इतना बड़ा चुंबक है। उन्होंने हाथ का जो ईशारा किया था, उसमें कम से कम दो किलो का तरबूज तो आ ही जाएगा।
उस तरबूज से भी बड़ी खामोशी हमारे बीच खड़ी थी और अब हम दोनों बैठ चुके थे। दूरी वही थी। लोकेशन भी वही। हम चुप थे। मौन ने न जाने इस देश में कितनों को देवता बनाया। पढ़े लिखे एक विद्वान टाईप के महानुभाव को पार्कों में, सड़कों पर या फिर किसी सभा में मैंने दसियों बार मौन बैठे देखा था। उस मौन का महत्व मुझे समझ में आया तब, जब एक गोष्ठी में वे पहली बार बोले। सबको बोलने दिया और फिर बोले तो बोलते चले गए। साहित्य को लेकर उठे थे शहर के गटर पर आकर बैठे। कवि, समाजवाद, महंगाई,प्याज,सड़क और गंदे नाले तक को समेट लिया। खामोशी की खुशबू फैलाकर रौब का डंडा चलाने का ये आईडिया मुझे बड़ा पसंद आया था, लेकिन मौका नहीं मिला। बचपन से ही हम बक-बक करनेवालों की उस बेशर्म टोली में शरीक माने जाते रहे, जिसके लिए कोई सुनने वाला न भी हो तो किसी बिजली के खंभे का सहारा ही काफी है।
उस शाम हमारे पास बिजली के खंभे का सहारा भी नहीं था। हम सचमुच मौन थे और दिल्ली के उस इंडियागेट पर थे, जिसका शोर जगत प्रसिद्ध है। पहली बार मुझे लगा कि किसी लड़की के सामने चुप रहना भी, लड़की पर गौर करने का एक रास्ता है। लेकिन गौर करने की ये सीमा भी बहुत देर पहले खत्म हो चुकी थी। अचानक चमत्कार हुआ और उसके चेहरे पर क्लोजअप मुस्कान नजर आई। वह बोली। पहली बार बोली-''मुझे घऱ जाना होगा। मेरे अंकल आने वाले हैं। कनाडा में रहते हैं,इनआरआई हैं। कई दिनों से हमलोग कर रहे हैं उनका इंतजार।" एनआरआई फूफा के इंतजार की खबर से लंबी खामोशी को गूंथकर वह मेरे सामने ही दिल्ली में प्रगति की रफ्तार की तरह चली गई। अब मैं अकेला था और सोच रहा था कि उस लड़की के दिल में एनआरआई के आने की उम्मीद के अलावा भी कोई उम्मीद है या नहीं। मुझे लगने लगा कि हर खामोशी तोड़ने के लिए एक अदद एनआरआई का आना जरूरी है। बेहद जरूरी।
-देव प्रकाश चौधरी
(अमर उजाला में 24 जून,2010 को तमाशा कॉलम में प्रकाशित)

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