Wednesday, October 6, 2010

सिंधी ढाबे में हिंदी का अनशन

वे दुखी थे और इसकी सबसे बड़ी पहचान ये थी कि दप्तर में वे एक ऐसा कोना तलाश कर रहे थे, जहां अपने चेहरे को लटका कर बैठ सकें। दप्तर आए थे तो चेहरा अपने वाजिव आकार में था, लेकिन कुछ पल बीते नहीं थे कि चेहरा खुद-ब-खुद लटकने लगा और वे खुद कोने की तलाश में भटकने लगे। तब तक सहकेबनीय शख्स ने एक दूसरे को बताया, दूसरे ने तीसरे को और इस तरह पूरे दफ्तर में ये बात फैल गई कि दिल्ली में कॉमनवेल्थ के दौरान हो रही हिंदी की दुर्दशा ने उन्हें दुखी कर दिया है।
जब पूरा देश हिंदी सप्ताह मना रहा हो । तनी हुई साहित्यिक रीढ़ नरम तकियों और मुलायम गद्दों का सहारा ले चुकी हो, तब महानगर में दशकों के अनुभव वाला हिंदीमुखी एक जीव कोने की तलाश में भटक रहा था। हद तो तब हो गई, जब उन्हें दफ्तर में कोई ऐसा कोना भी न मिल पाया, जहां वे कुछ पल बैठकर दशकों की हिंदी सेवा के बाद की इस अकस्मात उपेक्षा को देख, हिंदी सेवा के प्रोविडेंट फंड पर कुछ चिंतन कर पाते। क्षुब्ध होकर वे पास के सिंधी ढाबे में आ गए। गरम-गरम रोटी की सौंधी गंध,बेयरे की चिल्लपों और बरतनों की गिरती-संभलती आवाजों के बीच उनके दिल से ये आवाज उठी कि अब दिल्ली की हिंदी दिल्ली को मुबारक,अपनी हिंदी को उपर उठाना होगा। चाय आते ही, वे फ्लैशबैक में चले गए। तब क्या दिन थे। पूरे कस्बे में वे हिंदी और दिल्ली को एक साथ हनुमान की तरह कंधे पर उठाए घूमते थे। दिल्ली के महान हिंदीसेवी और साहित्यकार दुर्दशा प्रसाद ने एक चिट्ठी क्या लिख दी, महीनों आस-पास के कई कस्बों और छोटे शहरों में ये बात गूंजती रही कि हिंदी के दुर्दशा प्रसाद ने रामगढ़ के अनोखेलाल को चिट्ठी में भाई साहब लिखा है।
हिंदी सप्ताह शुरु नहीं होता कि आकाशवाणी और बैंकों से आमंत्रण आ जाता। भाई साहब का बुखार चढ़ता रहा। फिर प्रिय भाई, बन्धु, दोस्त और आदरणीय जैसे संबोधन भी रास्ते में आए, लेकिन तब तक वे दिल्ली आ गए थे। यहां आकर उन्हें पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि आखिर हर शहर में एक दिल्ली दरवाजा क्यों होता है? हर शहर से एक ट्रेन हर रोज सैकड़ों लोगों को लाकर दिल्ली में क्यों पटक देती है? तभी उन्होंने ये बुद्ध वचन अपने साथ आए एक छोटेलाल को कहा था कि हिंदीजीवी को दिल्लीमुखी होना बहुत जरूरी है। पालना कहीं झूले, लेकिन पलंग तो दिल्ली ही देती है।
अपने छोटे से कस्बे में हिंदी को ऊपर उठाने के लिए जो झोला लटकाया था, दिल्ली में उस झोले का वजन बढ़ता गया। हिंदी के अखवार, रेडियो, चैनल्स, बैंक, बीमा कंपनियां, सरकारी और गैर सरकारी दुकानों में हिंदी के नाप पर होनेवाले कीर्तनों में अनोखेलाल की तैयार की गई धुनें खूब बजती रही। हर सम्मान के साथ मिलनेवाले शॉल को वे अपने कस्बे के छोटेलाल जैसे छोटे-छोटे दोस्तों को भेजते रहे, जो अनोखेलाल की तरह हिंदी के विकास की कोई नई धुन तो नहीं बना पाए थे, लेकिन उनका पुराना रिकार्ड ही काफी था। शॉल भेजने के पीछे अनोखेलाल की एक सोच ये भी थी कि कस्बे में हिंदी के विकास का जो अलख जगाया था, उसकी गर्मी बनी रहे।
लेकिन इस बार के हिंदी सप्ताह ने अनोखेलाल को खुद अपनी सोच पर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। न किसी बैंक से, न वीमा कंपनियों से, न पुलिस से और न ही पब्लिक से कहीं से कोई न्यौता नहीं। "ऐसा कैसे चलेगा? " चाय की अंतिम घूंट ने मुंह का स्वाद और बिगाड़ दिया। लेकिन तभी उनके मन में एक जोरदार आईडिया आया और वे पास में ही एक दैनिक अखवार में अपने दोस्त से मिलने चले गए। दूसरे दिन लोगों ने ये खबर पढ़ी कि अनोखेलाल सरकारी दफ्तरों में हिंदी की दुर्दशा पर पांच दिन के अनशन पर बैठने जा रहे हैं। खबर अनोखेलाल ने भी पढ़ी और चेहरे पर मुस्कान तैर गई। शायद वो मुस्कान कह रही थी, दिल्ली की हिंदी दिल्ली को मुबारक, अब अपनी हिंदी की जय-जय ।
----देव प्रकाश चौधरी