ब्लागर्स के लिए ये जानना क्यों जरूरी है कि कौवे कविता क्यों नहीं करते? आज तक इस सवाल का जवाब तो नहीं मिला कि कौवे काले क्यों होते है? अब कौवे कविता नहीं करते तो क्या फर्क पड़ता है,लेकिन हिदी के एक अभूतपूर्व कवि का कहना है कि फर्क पड़ता है...और हर ब्लागर्स का नैतिक दायित्व है कि वो कौवे को पहचाने और जाने कि कौवे कविता क्यों नहीं करते?
कवि ने कविता में चिड़ियों के लुप्त होने की बात कही, रिश्तेदारों ने कहा वाह-वाह। रात के खाने में चिकन था, रिश्तेदारों ने फिर कहा वाह-वाह। चित्रकार ने गैलरी मालिक को कुछ चित्र दिखाए, मालिक ने कोई आश्वासन नहीं दिया। कूड़ा फेंकने वाले ने पैसे बढ़ाने की बात की, मालकिन ने कहा, खुद फेंक लूंगी। प्रोफेसर ने दस रुपये किलो आम मांगा, चौदह रुपये किलो आम बेच रहे उस फेरीवाले ने कहा कि आप आम खाना ही बंद कर दें। मधुमेह से जूझ रहे प्रोफेसर ने राहत की सांस ली यानी कि एक करोड़ से अधिक मानव-आबादी और ठीक इसके आधे कुत्ता-आबादी (एक समाज विज्ञानी का मानना है कि यहां हर दो आदमी पर एक कुत्ता रहता है) वाले देश की राजधानी में सब ठीक-ठाक चल रहा था कि यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई- कवि ने मौन धारण कर लिया है। खबर का कहीं से खंडन नहीं आया तो रिश्तेदारों ने कारण टटोलने की कोशिश की।इस घटना के ठीक तीन साल पहले कवि ने कला आलोचना लिखनी बंद की थी। तब वे कला और कविता को एक साथ लेकर चलते थे। वाह। क्या दिन थे वे और क्या जलवे थे उनके। लोग उन्हें एक किस्म का महाबली कहते।जिधर निकल पड़ते, उधर प्रदर्शनी खुद लग जाती। प्रदर्शनी में देर शाम तक रुकते तो वे खुद दर्शनीय हो जाते। वे कम बोलते, ज्यादा सोचते। वे पहले कला आलोचक थे, जिन्होंने दूसरे की कला की आलोचना में अपनी कविता ठोंक देने का रिवाज चलाया। आलोचना का इतिहास लिख रहे एक साहित्यकार ने उन्हें कविता और कला के बीच का सेतु कहा। पुरस्कार मिले, नाम हुआ। किताब आई, लोगों ने कला देखने की कला सीखी। कवि मुग्ध हुए, रिश्तेदार तृप्त हुए। जिनकी कला पर कवि ने नहीं लिखा, वह कला की दुनिया में अछूत। जिनकी कला पर कवि ने लिख दिया, उनका कद इतना ऊंचा कि वह सबके लिए अछूत।।चित भी उनकी, पट भी उनकी। यानी कविता, कला और आलोचना की दुनिया में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि महाबली कवि ने घोषणा कर दी कि अब वह आलोचना नहीं लिखेगा। रिश्तेदारों की सूरत ऐसी कि मानो गमी हो गई हो। सबने मनाया, कलाकारों ने हाथ-पांव जोड़े, पर कवि नहीं माना। हुआ यह था कि एक पेंटिंग में मौजूद केले का अर्थ कवि ने पूछा था। कलाकार ने कहा कि यह केला नहीं, हाथ की अंगुलियां है। कवि भड़के, कलाकार की कई पीढ़ियों ने केला खाना छोड़ दिया। कवि प्रदर्शनियों में जाते रहे, लेकिन लिखना छोड़ दिया।.....और अब कवि ने बोलना छोड़ दिया था।कवि की बात कवि ही जाने, पर रिश्तेदारों को पता चला कि इस बार कवि ने कौआ देख लिया है। कला में कौआ। वह भी एक चितेरी की कला में। वह भी शनिवार की शाम में।शाम के चार बजे थे। मौसम बेमतलब सुहाना था।महाबलि कवि के आने की सूचना हो गई थी।सब इंतजाम भी हो गए थे। महाबलि मंडी हाउस में ही था और मंडी हाउस की श्रीधाराणी कला दीर्घा में आना था, पर घर की मुर्गी होने की आशंका में महाबलि पहले आकाशवाणी गया। कुछ संभावित वार्ता पर विचार किया। लंबी बहस के बाद वह श्रीधाराणी पहुंचा। लोग ध्यन हुए। महाबलि मुग्ध हुआ। लटकते चित्रों को देखा। अपने अस्तव्यस्त कपड़ों को देखा। पानी पिया, पान खाया और ठीक उसी समयएक चित्र में कवि को कौआ दिखाई दिया।गौर से देखा, कौआ ही था। चश्मा पोंछकर देखा, कौआ ही था। चितेरी को पास बुलाया, इशारे से पूछा- "आपने यह कौआ क्यों बनाया?" महाबली का इशारा चितेरी के लिए अमूर्त कला से भी ऊंची कोई चीज नहीं थी, नहीं समझ पाया, पर नासमझी के माहौल में उसने पूछ लिया- "हर जगह के कौए काले ही क्यों होते हैं?" छोटी मुंह बड़ी बात!कवि ने बोलना छोड़ दिया। दिन बीते, महीने बीते, पर कवि ने बोलना शुरु नहीं किया।कउछ बोलने की कोशिश करते तो कौए याद आते।पर एक दिन कवि ने अपने एक रिश्तेदार कवि को फोन लगाया और कहा कि उसने महीनों बाद एक कविता लिखी है। उधर भगदड़ मच गई। मबाबलि ने कविता लिख ली...धन्य प्रभु...धन्य हो। फोन पर आवाज आई---"सुनाईये.....सुनाईये।"महाबलि का दिल बाग-बाग हो गया। लगा कि आवाज आसमान में सुराख कर देगी। कवि ने कविता पढ़ी......
" हर जगह के कौए काले होते हैं
कौए कविता नहीं करते
सोचो!हर जगह के कौए काले क्यों होते हैं?" रिश्तेदारों ने फिर कहा-वाह...वाह!
-देव प्रकाश चौधरी
Monday, September 14, 2009
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हम उनके रिश्तेदारों की की तरह उनकी कविता पर वाह वाह नहीं करेंगे....हम कांव कांव करेंगे...
ReplyDeleteबहुत रोचक पोस्ट मजा आ गया पढ़ कर...
नीरज
महाराज जी, बहुत दूर तक मार करते हैं आप, वैसे अगर कौवे काले न हो,सफेद हो तो क्या कहेंगे उसे-सौवा? बहुत खूब
ReplyDeleteरोचक पोस्ट .............अतिसुन्दर
ReplyDeleteबहुत गहरी बात कह गये आप सीधी चोट और जोर का झटका धीरे से शुभकामनायें
ReplyDeletebadhiya lagi aapki post...ab samajh mein aaya ki kauwe kaanv kaanv nahi karte.
ReplyDeleteO what a lovely page scheme ! Nice colours n' all ! Shows your aesthetic sense maharaj . Fabulous indeed.
ReplyDeleteThose who don't write poetry they do a great favour to the country. Already enough problems !
वाह-वाह्।
ReplyDeleteव्यंग्य और इतने इशारों में... जवाब नहीं भाई. वैसे इन दिनों कौवे ही कविता लिख-पढ़ रहे हैं और मजे की बात ये है कि अब वे काले भी नहीं रह गये हैं. कलर का जमाना है ना!!
ReplyDeletehaar bar ki tarah prabhavshali prastuti...
ReplyDeleterochakta liye ek kataksh!
मुझे तो लगता है आजकल
ReplyDeleteअधिकतर कौए ही कविता कर रहे हैं !
और सिर्फ कौए ही नहीं बगुले भी
कविता खूब जमकर कविता कर रहे हैं
जहाँ तक काले रंग का सवाल है तो
भाई दिल गोरा हो इतना ही काफी है !
रोचक!!
ReplyDeleteवाह वाह!!